अपने देश में गांधी 1915 में लगभग अजनबी की हैसियत से संयोगवश ही लौटे. कानून के पेचीदे पेशे ने उनके अन्त:करण को उद्वेलित किया और वे स्वार्थ की पगडंडियों से भटकते-भटकते लोकसेवा के राजमार्ग पर आ खड़े हुए.
उन्होंने व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में मनुष्य की आन्तरिक और बाह्य प्रकृति तथा चिन्तन और कर्म के सभी क्षेत्रों में नैतिक आदर्शों के अंतर और विसंगतियों को खत्म कर दिया. यहाँ तक कि प्रथम विश्व युध्द के दिनों में बर्तानवी हुकूमत की मजबूरी का फायदा उठाने के बजाय उन्होंने स्वयं को सेवा के लिए उपस्थित किया था क्योंकि यह अहिंसा की मूल भावना के विरुध्द था.
परन्तु अंग्रेजों द्वारा पराधीन भारतीयों की भावना की खिल्ली उड़ाने पर वे देश के अगुवा के रूप में अपना अहिंसा-दर्शन लेकर सामने आये. बापू ने राजनीति की व्यावसायिकता के रुख का परिहार किया.
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गाँधी की अहिंसा का फलितार्थ
Posted by
Pushpa Tiwari
Friday, April 11, 2008
Labels: गांधी
1 comments:
छ्त्तीसगढ छ्त्तीसगढी और गांधी पर लिखे आपके लेख अकसर मै रविवार.काम मे पढता रहता हुँ ।मै छ्त्तीसगढ से जिन चुनिंदा लोगो के लेख खोज-खोज कर पढता हुँ उसमे आप और सुनील जी पहले आते है ।
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