आप कॉलरिज को भूल गए हैं?

पिछले सप्ताह हैदराबाद में मिर्ज़ा ग़ालिब को लेकर प्रकाशित एक नई पुस्तक के विमोचन समारोह में आंध्र प्रदेश के राज्यपाल नारायण दत्त तिवारी ने यह रेखांकित किया कि मिर्ज़ा ग़ालिब का कविता की दुनिया में वही स्थान है जो अंगरेजी रूमानी कविता में वर्ड्सवर्थ, बायरन, शेले और कीट्स का है। महामहिम इसी दौर के बेहद महत्वपूर्ण बल्कि भविष्यमूलक कवि कॉलरिज का नाम भूल गए। यह अनायास ही हुआ होगा क्योंकि कॉलरिज जिस तरह का फक्कड़ व्यक्तित्व था और अफीम की पीनक में अमर साहित्य रचता था वह अच्छे अच्छों को सुनकर हज़म नहीं होता। वर्ड्सवर्थ राजकवि और राष्ट्रकवि था लगभग मैथिली शरण गुप्त की तर्ज़ पर। निराला में बायरन की तरह विद्रोह था और सुमित्रानंदन पंत में शेले की तरह का काव्य चित्रण। महादेवी वर्मा को पढ़ते हुए कीट्स की याद आती है। जयशंकर प्रसाद की कामायनी जॉन मिल्टन के पैराडाइज़ लॉस्ट की याद दिलाती है। बहुत अधिक भिन्नता होने पर भी कॉलरिज़ के काव्य चिंतन के समकक्ष मुक्तिबोध की आलोचना ठहरती है। फिर भी राज्यपाल कॉलरिज को भूल गए।

भूलने का सिलसिला छत्तीसगढ़ में भी चल रहा है। स्थानीय स्तर के कवियों को सरकारी शीर्ष पर बिठाया जा रहा है लेकिन जो साहित्य के शीर्ष पर हैं उनके लिए 'छत्तीसगढ़िया सबसे बढ़िया' वाला मुहावरा चस्पा नहीं होता है। हमारे दौर के सबसे महत्वपूर्ण कवि गजानन माधव मुक्तिबोध एक बेहद अल्पायु कवि सतीश चौबे पर फिदा थे और उसमें कविता का भविष्य देखते थे। सतीश चौबे की धारदार कविताएं किसी भी पीढ़ी के लिए गौरव का विषय हैं। वे यदि पुख्ता उम्र के होते तो जाने कहां पहुंचते। बख्शीजी, जो खुद बख्शी सृजनपीठ बनने के बाद विस्मृति के गर्भ से उबर गए हैं, कुंज बिहारी चौबे की कविताओं पर स्नेह रखते थे। अपने शिष्य की मृत्यु पर उन्होंने अद्भुत संस्मरणात्मक निबंध भी लिखा है। बख्शीजी तो शशि तिवारी की कहानियों पर तो उसी तरह मेहरबान थे। हाल में अपने 'गुरु-मित्र' के लिए उनके 'शिष्य-मित्र' विश्वरंजन ने प्रमोद वर्मा समग्र प्रकाशित कराया है, वरना प्रमोद वर्मा तो सबकी यादों में फिसल ही गए थे। यह अलग बात है कि एक संपादक मित्र उन्हें बड़ा लेखक नहीं मानते हैं। प्रमोद वर्मा को पहला प्रमुख सम्मान भवभूति अलंकरण हिन्दी के शीर्ष कवि नरेश मेहता के साथ दिया गया तो लोगों को आश्चर्य हुआ। लेकिन यह सूझबूझ मायाराम सुरजन की थी जिसका औचित्य आज समझ में आ रहा है।

मेरे मित्र विजय बहादुर सिंह यदि पिल नहीं पड़े होते तो हमारे दौर के अद्भुत कवि भवानी प्रसाद मिश्र की रचनावली भला कौन छपवाता। भवानी दादा तो साहित्य की वीणा हैं लेकिन उसके तार झंकृत करने के लिए समझदार उंगलियां भी तो चाहिए। यही काम विजय बहादुर सिंह ने अपने आलोचक गुरु नंद दुलारे बाजपेयी के लिए भी किया है। उससे भी लोगों को विस्मय हुआ है। भोपाल में उद्यमी लेखक तथा आलोचक राजुरकर राज यदि लगभग जिद्दी मूड में नहीं आते तो धीरे धीरे लोग पौरुष के कवि कथाकार दुष्यंत कुमार को भूलने लगते। हिन्दी की साहित्यिक समीक्षा की परंपरा में अलग अलग बानगी के प्रकाशचंद्र गुप्त और देवीशंकर अवस्थी जैसे आलोचक हैं जिन्हें लगातार याद रखने की ज़रूरत है। कबीर को हजारी प्रसाद द्विवेदी ने विस्मृति से निकाला और कुटुमसर गुफाओं को शंकर तिवारी ने।

मेरे एक वरिष्ठ मित्र श्रीकांत वर्मा को बड़ा लेखक नहीं मानते। बहुतेरे ऐसे हैं जिन्हें शानी के महत्व के बारे में शिक्षित करने की ज़रूरत है। छत्तीसगढ़ के इन दो बड़े लेखकों के लिए हमने तो कुछ नहीं किया लेकिन भला हो गोरखपुर के अरविंद त्रिपाठी का जिन्होंने श्रीकांत वर्मा को लेकर असाधारण परिश्रम किया और उनका साहित्य हमारे हवाले किया। शानी के लिए लेकिन अब तक कुछ नहीं हो रहा है। धनंजय वर्मा ने अलबत्ता एक लंबा निबंध शानी पर उसी तरह लिखा है जिस तरह मैनेजर पांडेय ने भाधवराव सप्रे पर। सप्रे जी पर तो बराए नाम कुछ न कुछ लिखा पढ़ा जा रहा है, उस तरह नहीं जिस तरह होना चाहिए था, लेकिन शानी को भूलने की ज़रूरत नहीं है। हबीब तनवीर इतना बड़ा नाम है कि उसे भूलना संभव नहीं है। उनके यश को बनाए रखने की ज़िम्मेदारी छत्तीसगढ़ के बाहर भी लोग उठाएंगे। लेकिन छत्तीसगढ़ क्या करेगा? जिनके नाम पर सरकारी संस्थान खुल रहे हैं उनसे कहीं बड़ा बौद्धिक योगदान हबीब तनवीर का तो है ही। नारायण लाल परमार अपनी तरह के अनोखे लेखक थे। उनके यश को रेखांकित करते रहने की जवाबदेही क्या उनके परिवार, पुत्र निकष और धमतरी की ही है। 'श्यामा स्वप्न' जैसी भूली बिसरी कृति के बहाने राजेन्द्र मिश्र ने ठाकुर जगन्मोहन सिंह की यादों को कुरेदने की कोशिश तो की। लेकिन यदुनंदन लाल श्रीवास्तव को लेकर कोई कुछ कर रहा है? इसी तरह शीर्ष फिल्मकार किशोर साहू का जितना भी लेखन है उसे एक पुस्तक के रूप में छपाकर हमें पढ़ने के लिए क्यों नहीं दिया जा सकता। प्रो0 यतेन्द्र गर्ग को कोई जानता है और आनन्द मिश्र को? उन्होंने हिन्दी और अंगरेजी में स्तरीय लेखन किया है?

शिक्षक दिवस सिर पर आ गया है। औपचारिक बहुत से कार्यक्रम होंगे। प्रथम पृष्ठ पर मंत्री छपेंगे। लेकिन छत्तीसगढ़ के शैक्षणिक संस्कार के बहुत से जन्मदाता उमादास मुखर्जी, योगानंदम, रामचंद्रन, विपिनचंद्र श्रीवास्तव, जयनारायण पांडेय, आनंदीलाल पांडेय, बख्शीजी, शमशुद्दीन, बुधराम टाऊ, कन्हैयालाल तिवारी, मोहनलाल पांडेय वगैरह की क्षणिक याद करने के नाम पर कोई सरकारी इतिहास पत्रक तैयार करेगा? राजनीति तो जहर की दुनिया है। उस जहर को सबसे ज्यादा अपने हलक में ठाकुर प्यारेलाल सिंह ने बसा लिया है। छत्तीसगढ़ के निर्माताओं की फेहरिस्त में यह अनोखा नाम है जिससे लोकतांत्रिक चुनाव युद्ध में मुकाबला करने के लिए राजसी जनयोद्धा रविशंकर शुक्ल तक को पसीना आता था। राज्य के मुख्यमंत्री और संस्कृति मंत्री को इस कांग्रेस विरोधी जननेता की उस तरह याद क्यों नहीं आती जिस तरह औरों की आती है। ठाकुर प्यारेलाल सिंह आज भी छत्तीसगढ़ के अवाम के दिलों की निष्कपट धड़कन हैं। दुर्ग के मोहनलाल बाकलीवाल ने भी अपना सब कुछ राजनीति के लिए कुर्बान कर दिया लेकिन उसी शहर में उनके बाद कई बड़े बड़े सूरमाओं को इस तरह याद किया जाता है मानो बाकलीवाल जी एक गुमनाम इकाई हैं। राजनीति में मैंने तो मदन तिवारी से ज्यादा ईमानदार नेता छत्तीसगढ़ में शायद ही अपनी आंखों से देखा हो। क्या राजनांदगांव के मौजूदा विधायक मदन तिवारी की याद में कोई ऐसी नैतिक संस्था नहीं बनाना चाहेंगे जहां राजनीति को शुद्ध करने की विधियां बताई जाएं।

यह क्यों होता है कि अपनी पितृ पीढ़ी को याद करने के लिए उसके परिवारों पर ही निर्भर रहें। हरि ठाकुर ने जो कुछ किया उसका उत्तरदायित्व उनके पुत्र आशीष पर क्यों हो। माधवराव सप्रे का यश उनके पौत्र अशोक ही क्यों ढोएं। पौत्री नलिनी ने प्रयत्न किया तब बख्शी रचनावली छपी। पत्नी वीणा वर्मा ही श्रीकांत वर्मा स्मृति आयोजन करती रहीं। ठाकुर विजय सिंह जगदलपुर में यही कर रहे हैं और हरकिशोर दास रायगढ़ में और विनोद साव दुर्ग में। परंपराओं को सांस्कृतिक दाय समझकर सरकार क्यों कुछ नहीं करती। वे साहित्यकार आकाश के नक्षत्र नहीं हैं जो मंत्री को चंद्रमा समझकर उससे रोशनी पाने में पुलकित होते रहते हैं। लेखक तो सूरज होता है। उसके और पाठक के बीच में सरकार भी यदि आ जाए तो आंशिक और अस्थायी सूर्यग्रहण ही होता है। सूर्य का ताप उसके बावजूद कायम है। स्थिर है। रम्मू श्रीवास्तव का अद्भुत गद्य प्रकाशन और चर्चा योग्य है। उस पर खोजी पत्रकारों को काम करना चाहिए। गुरुदेव चौबे का चुनिंदा गद्य राष्ट्रीय ख्याति की मांग करता है। कोई उसे उपलब्ध कराएगा? सरकारी प्रकाशनों में जो कुछ छनकर आ रहा है वह प्रशंसा योग्य नहीं है। दोयम दर्जे के लोग इतिहास के एक्स्ट्रा खिलाड़ी होते हैं। उन पर बहुत अधिक वक्त और ध्यान देने की ज़रूरत नहीं है। खिलाड़ियों में भी एरमन बेस्टियन के लिए क्या किया गया है?

आइंस्टीन का एक अमर वाक्य यादध्यानी की प्रकृति का है। उन्होंने कहा था कि भविष्य की पीढ़ियां यह कठिनाई से विश्वास करेंगी कि गांधी जैसा हाड़ मांस का कोई व्यक्ति इस धरती पर आया भी होगा। इशारा यह है कि गांधी की असंभव संभावनाओं के कारण लोग उन्हें भी भूल जाएंगे। वे सरकारी प्रयत्न जो मरणासन्न स्मृतियों को अमर करने का मुगालता पालते हैं इतिहास की पहली फुरसत में दफ्न हो जाते हैं। पूरे इंग्लैंड में शेक्सपीयर, वर्ड्सवर्थ, न्यूटन वगैरह के आवासों और कार्यस्थलों को इतनी अच्छी तरह संरक्षित किया गया है कि वे वर्तमान के प्रतीकों के रूप में लगते हैं। और तो और मैडम थुसाद का मोम घर क्या यही कुछ नहीं करता। हमने तो विवेकानंद, मुक्तिबोध, स्वामी आत्मानंद, रविशंकर शुक्ल, बख्शीजी, मुकुटधर पांडेय, हबीब तनवीर वगैरह के घरों की भी संभाल कहां की है। और क्या करना भी चाहते हैं। गुरु घासीदास विश्वविद्यालय से श्रीकांत वर्मा सृजनपीठ को गायब कर दिया गया और मुक्तिबोध को तो पूरे पाठयक्रम से। हम भी तो नारायणदत्त तिवारी हैं। और ये हमारे वरिष्ठ बंधु कॉलरिज़ की नस्ल के। पता नहीं पीनक में कौन है?

कनक तिवारी
सीनियर एडवोकेट
मो 94252-20737
99815-08737


पिछले सप्ताह हैदराबाद में मिर्ज़ा ग़ालिब को लेकर प्रकाशित एक नई पुस्तक के विमोचन समारोह में आंध्र प्रदेश के राज्यपाल नारायण दत्त तिवारी ने यह रेखांकित किया कि मिर्ज़ा ग़ालिब का कविता की दुनिया में वही स्थान है जो अंगरेजी रूमानी कविता में वर्ड्सवर्थ, बायरन, शेले और कीट्स का है। महामहिम इसी दौर के बेहद महत्वपूर्ण बल्कि भविष्यमूलक कवि कॉलरिज का नाम भूल गए। यह अनायास ही हुआ होगा क्योंकि कॉलरिज जिस तरह का फक्कड़ व्यक्तित्व था और अफीम की पीनक में अमर साहित्य रचता था वह अच्छे अच्छों को सुनकर हज़म नहीं होता। वर्ड्सवर्थ राजकवि और राष्ट्रकवि था लगभग मैथिली शरण गुप्त की तर्ज़ पर। निराला में बायरन की तरह विद्रोह था और सुमित्रानंदन पंत में शेले की तरह का काव्य चित्रण। महादेवी वर्मा को पढ़ते हुए कीट्स की याद आती है। जयशंकर प्रसाद की कामायनी जॉन मिल्टन के पैराडाइज़ लॉस्ट की याद दिलाती है। बहुत अधिक भिन्नता होने पर भी कॉलरिज़ के काव्य चिंतन के समकक्ष मुक्तिबोध की आलोचना ठहरती है। फिर भी राज्यपाल कॉलरिज को भूल गए।

भूलने का सिलसिला छत्तीसगढ़ में भी चल रहा है। स्थानीय स्तर के कवियों को सरकारी शीर्ष पर बिठाया जा रहा है लेकिन जो साहित्य के शीर्ष पर हैं उनके लिए 'छत्तीसगढ़िया सबसे बढ़िया' वाला मुहावरा चस्पा नहीं होता है। हमारे दौर के सबसे महत्वपूर्ण कवि गजानन माधव मुक्तिबोध एक बेहद अल्पायु कवि सतीश चौबे पर फिदा थे और उसमें कविता का भविष्य देखते थे। सतीश चौबे की धारदार कविताएं किसी भी पीढ़ी के लिए गौरव का विषय हैं। वे यदि पुख्ता उम्र के होते तो जाने कहां पहुंचते। बख्शीजी, जो खुद बख्शी सृजनपीठ बनने के बाद विस्मृति के गर्भ से उबर गए हैं, कुंज बिहारी चौबे की कविताओं पर स्नेह रखते थे। अपने शिष्य की मृत्यु पर उन्होंने अद्भुत संस्मरणात्मक निबंध भी लिखा है। बख्शीजी तो शशि तिवारी की कहानियों पर तो उसी तरह मेहरबान थे। हाल में अपने 'गुरु-मित्र' के लिए उनके 'शिष्य-मित्र' विश्वरंजन ने प्रमोद वर्मा समग्र प्रकाशित कराया है, वरना प्रमोद वर्मा तो सबकी यादों में फिसल ही गए थे। यह अलग बात है कि एक संपादक मित्र उन्हें बड़ा लेखक नहीं मानते हैं। प्रमोद वर्मा को पहला प्रमुख सम्मान भवभूति अलंकरण हिन्दी के शीर्ष कवि नरेश मेहता के साथ दिया गया तो लोगों को आश्चर्य हुआ। लेकिन यह सूझबूझ मायाराम सुरजन की थी जिसका औचित्य आज समझ में आ रहा है।

मेरे मित्र विजय बहादुर सिंह यदि पिल नहीं पड़े होते तो हमारे दौर के अद्भुत कवि भवानी प्रसाद मिश्र की रचनावली भला कौन छपवाता। भवानी दादा तो साहित्य की वीणा हैं लेकिन उसके तार झंकृत करने के लिए समझदार उंगलियां भी तो चाहिए। यही काम विजय बहादुर सिंह ने अपने आलोचक गुरु नंद दुलारे बाजपेयी के लिए भी किया है। उससे भी लोगों को विस्मय हुआ है। भोपाल में उद्यमी लेखक तथा आलोचक राजुरकर राज यदि लगभग जिद्दी मूड में नहीं आते तो धीरे धीरे लोग पौरुष के कवि कथाकार दुष्यंत कुमार को भूलने लगते। हिन्दी की साहित्यिक समीक्षा की परंपरा में अलग अलग बानगी के प्रकाशचंद्र गुप्त और देवीशंकर अवस्थी जैसे आलोचक हैं जिन्हें लगातार याद रखने की ज़रूरत है। कबीर को हजारी प्रसाद द्विवेदी ने विस्मृति से निकाला और कुटुमसर गुफाओं को शंकर तिवारी ने।

मेरे एक वरिष्ठ मित्र श्रीकांत वर्मा को बड़ा लेखक नहीं मानते। बहुतेरे ऐसे हैं जिन्हें शानी के महत्व के बारे में शिक्षित करने की ज़रूरत है। छत्तीसगढ़ के इन दो बड़े लेखकों के लिए हमने तो कुछ नहीं किया लेकिन भला हो गोरखपुर के अरविंद त्रिपाठी का जिन्होंने श्रीकांत वर्मा को लेकर असाधारण परिश्रम किया और उनका साहित्य हमारे हवाले किया। शानी के लिए लेकिन अब तक कुछ नहीं हो रहा है। धनंजय वर्मा ने अलबत्ता एक लंबा निबंध शानी पर उसी तरह लिखा है जिस तरह मैनेजर पांडेय ने भाधवराव सप्रे पर। सप्रे जी पर तो बराए नाम कुछ न कुछ लिखा पढ़ा जा रहा है, उस तरह नहीं जिस तरह होना चाहिए था, लेकिन शानी को भूलने की ज़रूरत नहीं है। हबीब तनवीर इतना बड़ा नाम है कि उसे भूलना संभव नहीं है। उनके यश को बनाए रखने की ज़िम्मेदारी छत्तीसगढ़ के बाहर भी लोग उठाएंगे। लेकिन छत्तीसगढ़ क्या करेगा? जिनके नाम पर सरकारी संस्थान खुल रहे हैं उनसे कहीं बड़ा बौद्धिक योगदान हबीब तनवीर का तो है ही। नारायण लाल परमार अपनी तरह के अनोखे लेखक थे। उनके यश को रेखांकित करते रहने की जवाबदेही क्या उनके परिवार, पुत्र निकष और धमतरी की ही है। 'श्यामा स्वप्न' जैसी भूली बिसरी कृति के बहाने राजेन्द्र मिश्र ने ठाकुर जगन्मोहन सिंह की यादों को कुरेदने की कोशिश तो की। लेकिन यदुनंदन लाल श्रीवास्तव को लेकर कोई कुछ कर रहा है? इसी तरह शीर्ष फिल्मकार किशोर साहू का जितना भी लेखन है उसे एक पुस्तक के रूप में छपाकर हमें पढ़ने के लिए क्यों नहीं दिया जा सकता। प्रो0 यतेन्द्र गर्ग को कोई जानता है और आनन्द मिश्र को? उन्होंने हिन्दी और अंगरेजी में स्तरीय लेखन किया है?

शिक्षक दिवस सिर पर आ गया है। औपचारिक बहुत से कार्यक्रम होंगे। प्रथम पृष्ठ पर मंत्री छपेंगे। लेकिन छत्तीसगढ़ के शैक्षणिक संस्कार के बहुत से जन्मदाता उमादास मुखर्जी, योगानंदम, रामचंद्रन, विपिनचंद्र श्रीवास्तव, जयनारायण पांडेय, आनंदीलाल पांडेय, बख्शीजी, शमशुद्दीन, बुधराम टाऊ, कन्हैयालाल तिवारी, मोहनलाल पांडेय वगैरह की क्षणिक याद करने के नाम पर कोई सरकारी इतिहास पत्रक तैयार करेगा? राजनीति तो जहर की दुनिया है। उस जहर को सबसे ज्यादा अपने हलक में ठाकुर प्यारेलाल सिंह ने बसा लिया है। छत्तीसगढ़ के निर्माताओं की फेहरिस्त में यह अनोखा नाम है जिससे लोकतांत्रिक चुनाव युद्ध में मुकाबला करने के लिए राजसी जनयोद्धा रविशंकर शुक्ल तक को पसीना आता था। राज्य के मुख्यमंत्री और संस्कृति मंत्री को इस कांग्रेस विरोधी जननेता की उस तरह याद क्यों नहीं आती जिस तरह औरों की आती है। ठाकुर प्यारेलाल सिंह आज भी छत्तीसगढ़ के अवाम के दिलों की निष्कपट धड़कन हैं। दुर्ग के मोहनलाल बाकलीवाल ने भी अपना सब कुछ राजनीति के लिए कुर्बान कर दिया लेकिन उसी शहर में उनके बाद कई बड़े बड़े सूरमाओं को इस तरह याद किया जाता है मानो बाकलीवाल जी एक गुमनाम इकाई हैं। राजनीति में मैंने तो मदन तिवारी से ज्यादा ईमानदार नेता छत्तीसगढ़ में शायद ही अपनी आंखों से देखा हो। क्या राजनांदगांव के मौजूदा विधायक मदन तिवारी की याद में कोई ऐसी नैतिक संस्था नहीं बनाना चाहेंगे जहां राजनीति को शुद्ध करने की विधियां बताई जाएं।

यह क्यों होता है कि अपनी पितृ पीढ़ी को याद करने के लिए उसके परिवारों पर ही निर्भर रहें। हरि ठाकुर ने जो कुछ किया उसका उत्तरदायित्व उनके पुत्र आशीष पर क्यों हो। माधवराव सप्रे का यश उनके पौत्र अशोक ही क्यों ढोएं। पौत्री नलिनी ने प्रयत्न किया तब बख्शी रचनावली छपी। पत्नी वीणा वर्मा ही श्रीकांत वर्मा स्मृति आयोजन करती रहीं। ठाकुर विजय सिंह जगदलपुर में यही कर रहे हैं और हरकिशोर दास रायगढ़ में और विनोद साव दुर्ग में। परंपराओं को सांस्कृतिक दाय समझकर सरकार क्यों कुछ नहीं करती। वे साहित्यकार आकाश के नक्षत्र नहीं हैं जो मंत्री को चंद्रमा समझकर उससे रोशनी पाने में पुलकित होते रहते हैं। लेखक तो सूरज होता है। उसके और पाठक के बीच में सरकार भी यदि आ जाए तो आंशिक और अस्थायी सूर्यग्रहण ही होता है। सूर्य का ताप उसके बावजूद कायम है। स्थिर है। रम्मू श्रीवास्तव का अद्भुत गद्य प्रकाशन और चर्चा योग्य है। उस पर खोजी पत्रकारों को काम करना चाहिए। गुरुदेव चौबे का चुनिंदा गद्य राष्ट्रीय ख्याति की मांग करता है। कोई उसे उपलब्ध कराएगा? सरकारी प्रकाशनों में जो कुछ छनकर आ रहा है वह प्रशंसा योग्य नहीं है। दोयम दर्जे के लोग इतिहास के एक्स्ट्रा खिलाड़ी होते हैं। उन पर बहुत अधिक वक्त और ध्यान देने की ज़रूरत नहीं है। खिलाड़ियों में भी एरमन बेस्टियन के लिए क्या किया गया है?

आइंस्टीन का एक अमर वाक्य यादध्यानी की प्रकृति का है। उन्होंने कहा था कि भविष्य की पीढ़ियां यह कठिनाई से विश्वास करेंगी कि गांधी जैसा हाड़ मांस का कोई व्यक्ति इस धरती पर आया भी होगा। इशारा यह है कि गांधी की असंभव संभावनाओं के कारण लोग उन्हें भी भूल जाएंगे। वे सरकारी प्रयत्न जो मरणासन्न स्मृतियों को अमर करने का मुगालता पालते हैं इतिहास की पहली फुरसत में दफ्न हो जाते हैं। पूरे इंग्लैंड में शेक्सपीयर, वर्ड्सवर्थ, न्यूटन वगैरह के आवासों और कार्यस्थलों को इतनी अच्छी तरह संरक्षित किया गया है कि वे वर्तमान के प्रतीकों के रूप में लगते हैं। और तो और मैडम थुसाद का मोम घर क्या यही कुछ नहीं करता। हमने तो विवेकानंद, मुक्तिबोध, स्वामी आत्मानंद, रविशंकर शुक्ल, बख्शीजी, मुकुटधर पांडेय, हबीब तनवीर वगैरह के घरों की भी संभाल कहां की है। और क्या करना भी चाहते हैं। गुरु घासीदास विश्वविद्यालय से श्रीकांत वर्मा सृजनपीठ को गायब कर दिया गया और मुक्तिबोध को तो पूरे पाठयक्रम से। हम भी तो नारायणदत्त तिवारी हैं। और ये हमारे वरिष्ठ बंधु कॉलरिज़ की नस्ल के। पता नहीं पीनक में कौन है?

कनक तिवारी
सीनियर एडवोकेट
मो 94252-20737
99815-08737

2 comments:

Vinay August 14, 2009 at 4:34 AM  

श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ। जय श्री कृष्ण!!
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अजित वडनेरकर September 5, 2009 at 11:30 AM  

बूहुत बढ़िया आलेख। श्रीकान्त वर्मा को तो नाम मिला था। उनके कवि रूप की भरपूर सराहना भी हुई, मगर शानी के बारे में आपका कहना बिल्कुल सही है।

मैने शानी जी के कथा-साहित्य पर शोधप्रबंध लिखा था। उनसे मिला तो यह बात कई बार सामने आई। उन्होंने जानकारी दी थी यूरोप की एक छात्रा भी उन पर शोध कर रही थी। उनके अलावा शायद तब मैं अकेला था जो उन पर काम कर रहा था।

यहा आकर अच्छा लगा।


कनक तिवारी