आप कॉलरिज को भूल गए हैं?
पिछले सप्ताह हैदराबाद में मिर्ज़ा ग़ालिब को लेकर प्रकाशित एक नई पुस्तक के विमोचन समारोह में आंध्र प्रदेश के राज्यपाल नारायण दत्त तिवारी ने यह रेखांकित किया कि मिर्ज़ा ग़ालिब का कविता की दुनिया में वही स्थान है जो अंगरेजी रूमानी कविता में वर्ड्सवर्थ, बायरन, शेले और कीट्स का है। महामहिम इसी दौर के बेहद महत्वपूर्ण बल्कि भविष्यमूलक कवि कॉलरिज का नाम भूल गए। यह अनायास ही हुआ होगा क्योंकि कॉलरिज जिस तरह का फक्कड़ व्यक्तित्व था और अफीम की पीनक में अमर साहित्य रचता था वह अच्छे अच्छों को सुनकर हज़म नहीं होता। वर्ड्सवर्थ राजकवि और राष्ट्रकवि था लगभग मैथिली शरण गुप्त की तर्ज़ पर। निराला में बायरन की तरह विद्रोह था और सुमित्रानंदन पंत में शेले की तरह का काव्य चित्रण। महादेवी वर्मा को पढ़ते हुए कीट्स की याद आती है। जयशंकर प्रसाद की कामायनी जॉन मिल्टन के पैराडाइज़ लॉस्ट की याद दिलाती है। बहुत अधिक भिन्नता होने पर भी कॉलरिज़ के काव्य चिंतन के समकक्ष मुक्तिबोध की आलोचना ठहरती है। फिर भी राज्यपाल कॉलरिज को भूल गए।
भूलने का सिलसिला छत्तीसगढ़ में भी चल रहा है। स्थानीय स्तर के कवियों को सरकारी शीर्ष पर बिठाया जा रहा है लेकिन जो साहित्य के शीर्ष पर हैं उनके लिए 'छत्तीसगढ़िया सबसे बढ़िया' वाला मुहावरा चस्पा नहीं होता है। हमारे दौर के सबसे महत्वपूर्ण कवि गजानन माधव मुक्तिबोध एक बेहद अल्पायु कवि सतीश चौबे पर फिदा थे और उसमें कविता का भविष्य देखते थे। सतीश चौबे की धारदार कविताएं किसी भी पीढ़ी के लिए गौरव का विषय हैं। वे यदि पुख्ता उम्र के होते तो जाने कहां पहुंचते। बख्शीजी, जो खुद बख्शी सृजनपीठ बनने के बाद विस्मृति के गर्भ से उबर गए हैं, कुंज बिहारी चौबे की कविताओं पर स्नेह रखते थे। अपने शिष्य की मृत्यु पर उन्होंने अद्भुत संस्मरणात्मक निबंध भी लिखा है। बख्शीजी तो शशि तिवारी की कहानियों पर तो उसी तरह मेहरबान थे। हाल में अपने 'गुरु-मित्र' के लिए उनके 'शिष्य-मित्र' विश्वरंजन ने प्रमोद वर्मा समग्र प्रकाशित कराया है, वरना प्रमोद वर्मा तो सबकी यादों में फिसल ही गए थे। यह अलग बात है कि एक संपादक मित्र उन्हें बड़ा लेखक नहीं मानते हैं। प्रमोद वर्मा को पहला प्रमुख सम्मान भवभूति अलंकरण हिन्दी के शीर्ष कवि नरेश मेहता के साथ दिया गया तो लोगों को आश्चर्य हुआ। लेकिन यह सूझबूझ मायाराम सुरजन की थी जिसका औचित्य आज समझ में आ रहा है।
मेरे मित्र विजय बहादुर सिंह यदि पिल नहीं पड़े होते तो हमारे दौर के अद्भुत कवि भवानी प्रसाद मिश्र की रचनावली भला कौन छपवाता। भवानी दादा तो साहित्य की वीणा हैं लेकिन उसके तार झंकृत करने के लिए समझदार उंगलियां भी तो चाहिए। यही काम विजय बहादुर सिंह ने अपने आलोचक गुरु नंद दुलारे बाजपेयी के लिए भी किया है। उससे भी लोगों को विस्मय हुआ है। भोपाल में उद्यमी लेखक तथा आलोचक राजुरकर राज यदि लगभग जिद्दी मूड में नहीं आते तो धीरे धीरे लोग पौरुष के कवि कथाकार दुष्यंत कुमार को भूलने लगते। हिन्दी की साहित्यिक समीक्षा की परंपरा में अलग अलग बानगी के प्रकाशचंद्र गुप्त और देवीशंकर अवस्थी जैसे आलोचक हैं जिन्हें लगातार याद रखने की ज़रूरत है। कबीर को हजारी प्रसाद द्विवेदी ने विस्मृति से निकाला और कुटुमसर गुफाओं को शंकर तिवारी ने।
मेरे एक वरिष्ठ मित्र श्रीकांत वर्मा को बड़ा लेखक नहीं मानते। बहुतेरे ऐसे हैं जिन्हें शानी के महत्व के बारे में शिक्षित करने की ज़रूरत है। छत्तीसगढ़ के इन दो बड़े लेखकों के लिए हमने तो कुछ नहीं किया लेकिन भला हो गोरखपुर के अरविंद त्रिपाठी का जिन्होंने श्रीकांत वर्मा को लेकर असाधारण परिश्रम किया और उनका साहित्य हमारे हवाले किया। शानी के लिए लेकिन अब तक कुछ नहीं हो रहा है। धनंजय वर्मा ने अलबत्ता एक लंबा निबंध शानी पर उसी तरह लिखा है जिस तरह मैनेजर पांडेय ने भाधवराव सप्रे पर। सप्रे जी पर तो बराए नाम कुछ न कुछ लिखा पढ़ा जा रहा है, उस तरह नहीं जिस तरह होना चाहिए था, लेकिन शानी को भूलने की ज़रूरत नहीं है। हबीब तनवीर इतना बड़ा नाम है कि उसे भूलना संभव नहीं है। उनके यश को बनाए रखने की ज़िम्मेदारी छत्तीसगढ़ के बाहर भी लोग उठाएंगे। लेकिन छत्तीसगढ़ क्या करेगा? जिनके नाम पर सरकारी संस्थान खुल रहे हैं उनसे कहीं बड़ा बौद्धिक योगदान हबीब तनवीर का तो है ही। नारायण लाल परमार अपनी तरह के अनोखे लेखक थे। उनके यश को रेखांकित करते रहने की जवाबदेही क्या उनके परिवार, पुत्र निकष और धमतरी की ही है। 'श्यामा स्वप्न' जैसी भूली बिसरी कृति के बहाने राजेन्द्र मिश्र ने ठाकुर जगन्मोहन सिंह की यादों को कुरेदने की कोशिश तो की। लेकिन यदुनंदन लाल श्रीवास्तव को लेकर कोई कुछ कर रहा है? इसी तरह शीर्ष फिल्मकार किशोर साहू का जितना भी लेखन है उसे एक पुस्तक के रूप में छपाकर हमें पढ़ने के लिए क्यों नहीं दिया जा सकता। प्रो0 यतेन्द्र गर्ग को कोई जानता है और आनन्द मिश्र को? उन्होंने हिन्दी और अंगरेजी में स्तरीय लेखन किया है?
शिक्षक दिवस सिर पर आ गया है। औपचारिक बहुत से कार्यक्रम होंगे। प्रथम पृष्ठ पर मंत्री छपेंगे। लेकिन छत्तीसगढ़ के शैक्षणिक संस्कार के बहुत से जन्मदाता उमादास मुखर्जी, योगानंदम, रामचंद्रन, विपिनचंद्र श्रीवास्तव, जयनारायण पांडेय, आनंदीलाल पांडेय, बख्शीजी, शमशुद्दीन, बुधराम टाऊ, कन्हैयालाल तिवारी, मोहनलाल पांडेय वगैरह की क्षणिक याद करने के नाम पर कोई सरकारी इतिहास पत्रक तैयार करेगा? राजनीति तो जहर की दुनिया है। उस जहर को सबसे ज्यादा अपने हलक में ठाकुर प्यारेलाल सिंह ने बसा लिया है। छत्तीसगढ़ के निर्माताओं की फेहरिस्त में यह अनोखा नाम है जिससे लोकतांत्रिक चुनाव युद्ध में मुकाबला करने के लिए राजसी जनयोद्धा रविशंकर शुक्ल तक को पसीना आता था। राज्य के मुख्यमंत्री और संस्कृति मंत्री को इस कांग्रेस विरोधी जननेता की उस तरह याद क्यों नहीं आती जिस तरह औरों की आती है। ठाकुर प्यारेलाल सिंह आज भी छत्तीसगढ़ के अवाम के दिलों की निष्कपट धड़कन हैं। दुर्ग के मोहनलाल बाकलीवाल ने भी अपना सब कुछ राजनीति के लिए कुर्बान कर दिया लेकिन उसी शहर में उनके बाद कई बड़े बड़े सूरमाओं को इस तरह याद किया जाता है मानो बाकलीवाल जी एक गुमनाम इकाई हैं। राजनीति में मैंने तो मदन तिवारी से ज्यादा ईमानदार नेता छत्तीसगढ़ में शायद ही अपनी आंखों से देखा हो। क्या राजनांदगांव के मौजूदा विधायक मदन तिवारी की याद में कोई ऐसी नैतिक संस्था नहीं बनाना चाहेंगे जहां राजनीति को शुद्ध करने की विधियां बताई जाएं।
यह क्यों होता है कि अपनी पितृ पीढ़ी को याद करने के लिए उसके परिवारों पर ही निर्भर रहें। हरि ठाकुर ने जो कुछ किया उसका उत्तरदायित्व उनके पुत्र आशीष पर क्यों हो। माधवराव सप्रे का यश उनके पौत्र अशोक ही क्यों ढोएं। पौत्री नलिनी ने प्रयत्न किया तब बख्शी रचनावली छपी। पत्नी वीणा वर्मा ही श्रीकांत वर्मा स्मृति आयोजन करती रहीं। ठाकुर विजय सिंह जगदलपुर में यही कर रहे हैं और हरकिशोर दास रायगढ़ में और विनोद साव दुर्ग में। परंपराओं को सांस्कृतिक दाय समझकर सरकार क्यों कुछ नहीं करती। वे साहित्यकार आकाश के नक्षत्र नहीं हैं जो मंत्री को चंद्रमा समझकर उससे रोशनी पाने में पुलकित होते रहते हैं। लेखक तो सूरज होता है। उसके और पाठक के बीच में सरकार भी यदि आ जाए तो आंशिक और अस्थायी सूर्यग्रहण ही होता है। सूर्य का ताप उसके बावजूद कायम है। स्थिर है। रम्मू श्रीवास्तव का अद्भुत गद्य प्रकाशन और चर्चा योग्य है। उस पर खोजी पत्रकारों को काम करना चाहिए। गुरुदेव चौबे का चुनिंदा गद्य राष्ट्रीय ख्याति की मांग करता है। कोई उसे उपलब्ध कराएगा? सरकारी प्रकाशनों में जो कुछ छनकर आ रहा है वह प्रशंसा योग्य नहीं है। दोयम दर्जे के लोग इतिहास के एक्स्ट्रा खिलाड़ी होते हैं। उन पर बहुत अधिक वक्त और ध्यान देने की ज़रूरत नहीं है। खिलाड़ियों में भी एरमन बेस्टियन के लिए क्या किया गया है?
आइंस्टीन का एक अमर वाक्य यादध्यानी की प्रकृति का है। उन्होंने कहा था कि भविष्य की पीढ़ियां यह कठिनाई से विश्वास करेंगी कि गांधी जैसा हाड़ मांस का कोई व्यक्ति इस धरती पर आया भी होगा। इशारा यह है कि गांधी की असंभव संभावनाओं के कारण लोग उन्हें भी भूल जाएंगे। वे सरकारी प्रयत्न जो मरणासन्न स्मृतियों को अमर करने का मुगालता पालते हैं इतिहास की पहली फुरसत में दफ्न हो जाते हैं। पूरे इंग्लैंड में शेक्सपीयर, वर्ड्सवर्थ, न्यूटन वगैरह के आवासों और कार्यस्थलों को इतनी अच्छी तरह संरक्षित किया गया है कि वे वर्तमान के प्रतीकों के रूप में लगते हैं। और तो और मैडम थुसाद का मोम घर क्या यही कुछ नहीं करता। हमने तो विवेकानंद, मुक्तिबोध, स्वामी आत्मानंद, रविशंकर शुक्ल, बख्शीजी, मुकुटधर पांडेय, हबीब तनवीर वगैरह के घरों की भी संभाल कहां की है। और क्या करना भी चाहते हैं। गुरु घासीदास विश्वविद्यालय से श्रीकांत वर्मा सृजनपीठ को गायब कर दिया गया और मुक्तिबोध को तो पूरे पाठयक्रम से। हम भी तो नारायणदत्त तिवारी हैं। और ये हमारे वरिष्ठ बंधु कॉलरिज़ की नस्ल के। पता नहीं पीनक में कौन है?
कनक तिवारी
सीनियर एडवोकेट
मो 94252-20737
99815-08737
पिछले सप्ताह हैदराबाद में मिर्ज़ा ग़ालिब को लेकर प्रकाशित एक नई पुस्तक के विमोचन समारोह में आंध्र प्रदेश के राज्यपाल नारायण दत्त तिवारी ने यह रेखांकित किया कि मिर्ज़ा ग़ालिब का कविता की दुनिया में वही स्थान है जो अंगरेजी रूमानी कविता में वर्ड्सवर्थ, बायरन, शेले और कीट्स का है। महामहिम इसी दौर के बेहद महत्वपूर्ण बल्कि भविष्यमूलक कवि कॉलरिज का नाम भूल गए। यह अनायास ही हुआ होगा क्योंकि कॉलरिज जिस तरह का फक्कड़ व्यक्तित्व था और अफीम की पीनक में अमर साहित्य रचता था वह अच्छे अच्छों को सुनकर हज़म नहीं होता। वर्ड्सवर्थ राजकवि और राष्ट्रकवि था लगभग मैथिली शरण गुप्त की तर्ज़ पर। निराला में बायरन की तरह विद्रोह था और सुमित्रानंदन पंत में शेले की तरह का काव्य चित्रण। महादेवी वर्मा को पढ़ते हुए कीट्स की याद आती है। जयशंकर प्रसाद की कामायनी जॉन मिल्टन के पैराडाइज़ लॉस्ट की याद दिलाती है। बहुत अधिक भिन्नता होने पर भी कॉलरिज़ के काव्य चिंतन के समकक्ष मुक्तिबोध की आलोचना ठहरती है। फिर भी राज्यपाल कॉलरिज को भूल गए।
भूलने का सिलसिला छत्तीसगढ़ में भी चल रहा है। स्थानीय स्तर के कवियों को सरकारी शीर्ष पर बिठाया जा रहा है लेकिन जो साहित्य के शीर्ष पर हैं उनके लिए 'छत्तीसगढ़िया सबसे बढ़िया' वाला मुहावरा चस्पा नहीं होता है। हमारे दौर के सबसे महत्वपूर्ण कवि गजानन माधव मुक्तिबोध एक बेहद अल्पायु कवि सतीश चौबे पर फिदा थे और उसमें कविता का भविष्य देखते थे। सतीश चौबे की धारदार कविताएं किसी भी पीढ़ी के लिए गौरव का विषय हैं। वे यदि पुख्ता उम्र के होते तो जाने कहां पहुंचते। बख्शीजी, जो खुद बख्शी सृजनपीठ बनने के बाद विस्मृति के गर्भ से उबर गए हैं, कुंज बिहारी चौबे की कविताओं पर स्नेह रखते थे। अपने शिष्य की मृत्यु पर उन्होंने अद्भुत संस्मरणात्मक निबंध भी लिखा है। बख्शीजी तो शशि तिवारी की कहानियों पर तो उसी तरह मेहरबान थे। हाल में अपने 'गुरु-मित्र' के लिए उनके 'शिष्य-मित्र' विश्वरंजन ने प्रमोद वर्मा समग्र प्रकाशित कराया है, वरना प्रमोद वर्मा तो सबकी यादों में फिसल ही गए थे। यह अलग बात है कि एक संपादक मित्र उन्हें बड़ा लेखक नहीं मानते हैं। प्रमोद वर्मा को पहला प्रमुख सम्मान भवभूति अलंकरण हिन्दी के शीर्ष कवि नरेश मेहता के साथ दिया गया तो लोगों को आश्चर्य हुआ। लेकिन यह सूझबूझ मायाराम सुरजन की थी जिसका औचित्य आज समझ में आ रहा है।
मेरे मित्र विजय बहादुर सिंह यदि पिल नहीं पड़े होते तो हमारे दौर के अद्भुत कवि भवानी प्रसाद मिश्र की रचनावली भला कौन छपवाता। भवानी दादा तो साहित्य की वीणा हैं लेकिन उसके तार झंकृत करने के लिए समझदार उंगलियां भी तो चाहिए। यही काम विजय बहादुर सिंह ने अपने आलोचक गुरु नंद दुलारे बाजपेयी के लिए भी किया है। उससे भी लोगों को विस्मय हुआ है। भोपाल में उद्यमी लेखक तथा आलोचक राजुरकर राज यदि लगभग जिद्दी मूड में नहीं आते तो धीरे धीरे लोग पौरुष के कवि कथाकार दुष्यंत कुमार को भूलने लगते। हिन्दी की साहित्यिक समीक्षा की परंपरा में अलग अलग बानगी के प्रकाशचंद्र गुप्त और देवीशंकर अवस्थी जैसे आलोचक हैं जिन्हें लगातार याद रखने की ज़रूरत है। कबीर को हजारी प्रसाद द्विवेदी ने विस्मृति से निकाला और कुटुमसर गुफाओं को शंकर तिवारी ने।
मेरे एक वरिष्ठ मित्र श्रीकांत वर्मा को बड़ा लेखक नहीं मानते। बहुतेरे ऐसे हैं जिन्हें शानी के महत्व के बारे में शिक्षित करने की ज़रूरत है। छत्तीसगढ़ के इन दो बड़े लेखकों के लिए हमने तो कुछ नहीं किया लेकिन भला हो गोरखपुर के अरविंद त्रिपाठी का जिन्होंने श्रीकांत वर्मा को लेकर असाधारण परिश्रम किया और उनका साहित्य हमारे हवाले किया। शानी के लिए लेकिन अब तक कुछ नहीं हो रहा है। धनंजय वर्मा ने अलबत्ता एक लंबा निबंध शानी पर उसी तरह लिखा है जिस तरह मैनेजर पांडेय ने भाधवराव सप्रे पर। सप्रे जी पर तो बराए नाम कुछ न कुछ लिखा पढ़ा जा रहा है, उस तरह नहीं जिस तरह होना चाहिए था, लेकिन शानी को भूलने की ज़रूरत नहीं है। हबीब तनवीर इतना बड़ा नाम है कि उसे भूलना संभव नहीं है। उनके यश को बनाए रखने की ज़िम्मेदारी छत्तीसगढ़ के बाहर भी लोग उठाएंगे। लेकिन छत्तीसगढ़ क्या करेगा? जिनके नाम पर सरकारी संस्थान खुल रहे हैं उनसे कहीं बड़ा बौद्धिक योगदान हबीब तनवीर का तो है ही। नारायण लाल परमार अपनी तरह के अनोखे लेखक थे। उनके यश को रेखांकित करते रहने की जवाबदेही क्या उनके परिवार, पुत्र निकष और धमतरी की ही है। 'श्यामा स्वप्न' जैसी भूली बिसरी कृति के बहाने राजेन्द्र मिश्र ने ठाकुर जगन्मोहन सिंह की यादों को कुरेदने की कोशिश तो की। लेकिन यदुनंदन लाल श्रीवास्तव को लेकर कोई कुछ कर रहा है? इसी तरह शीर्ष फिल्मकार किशोर साहू का जितना भी लेखन है उसे एक पुस्तक के रूप में छपाकर हमें पढ़ने के लिए क्यों नहीं दिया जा सकता। प्रो0 यतेन्द्र गर्ग को कोई जानता है और आनन्द मिश्र को? उन्होंने हिन्दी और अंगरेजी में स्तरीय लेखन किया है?
शिक्षक दिवस सिर पर आ गया है। औपचारिक बहुत से कार्यक्रम होंगे। प्रथम पृष्ठ पर मंत्री छपेंगे। लेकिन छत्तीसगढ़ के शैक्षणिक संस्कार के बहुत से जन्मदाता उमादास मुखर्जी, योगानंदम, रामचंद्रन, विपिनचंद्र श्रीवास्तव, जयनारायण पांडेय, आनंदीलाल पांडेय, बख्शीजी, शमशुद्दीन, बुधराम टाऊ, कन्हैयालाल तिवारी, मोहनलाल पांडेय वगैरह की क्षणिक याद करने के नाम पर कोई सरकारी इतिहास पत्रक तैयार करेगा? राजनीति तो जहर की दुनिया है। उस जहर को सबसे ज्यादा अपने हलक में ठाकुर प्यारेलाल सिंह ने बसा लिया है। छत्तीसगढ़ के निर्माताओं की फेहरिस्त में यह अनोखा नाम है जिससे लोकतांत्रिक चुनाव युद्ध में मुकाबला करने के लिए राजसी जनयोद्धा रविशंकर शुक्ल तक को पसीना आता था। राज्य के मुख्यमंत्री और संस्कृति मंत्री को इस कांग्रेस विरोधी जननेता की उस तरह याद क्यों नहीं आती जिस तरह औरों की आती है। ठाकुर प्यारेलाल सिंह आज भी छत्तीसगढ़ के अवाम के दिलों की निष्कपट धड़कन हैं। दुर्ग के मोहनलाल बाकलीवाल ने भी अपना सब कुछ राजनीति के लिए कुर्बान कर दिया लेकिन उसी शहर में उनके बाद कई बड़े बड़े सूरमाओं को इस तरह याद किया जाता है मानो बाकलीवाल जी एक गुमनाम इकाई हैं। राजनीति में मैंने तो मदन तिवारी से ज्यादा ईमानदार नेता छत्तीसगढ़ में शायद ही अपनी आंखों से देखा हो। क्या राजनांदगांव के मौजूदा विधायक मदन तिवारी की याद में कोई ऐसी नैतिक संस्था नहीं बनाना चाहेंगे जहां राजनीति को शुद्ध करने की विधियां बताई जाएं।
यह क्यों होता है कि अपनी पितृ पीढ़ी को याद करने के लिए उसके परिवारों पर ही निर्भर रहें। हरि ठाकुर ने जो कुछ किया उसका उत्तरदायित्व उनके पुत्र आशीष पर क्यों हो। माधवराव सप्रे का यश उनके पौत्र अशोक ही क्यों ढोएं। पौत्री नलिनी ने प्रयत्न किया तब बख्शी रचनावली छपी। पत्नी वीणा वर्मा ही श्रीकांत वर्मा स्मृति आयोजन करती रहीं। ठाकुर विजय सिंह जगदलपुर में यही कर रहे हैं और हरकिशोर दास रायगढ़ में और विनोद साव दुर्ग में। परंपराओं को सांस्कृतिक दाय समझकर सरकार क्यों कुछ नहीं करती। वे साहित्यकार आकाश के नक्षत्र नहीं हैं जो मंत्री को चंद्रमा समझकर उससे रोशनी पाने में पुलकित होते रहते हैं। लेखक तो सूरज होता है। उसके और पाठक के बीच में सरकार भी यदि आ जाए तो आंशिक और अस्थायी सूर्यग्रहण ही होता है। सूर्य का ताप उसके बावजूद कायम है। स्थिर है। रम्मू श्रीवास्तव का अद्भुत गद्य प्रकाशन और चर्चा योग्य है। उस पर खोजी पत्रकारों को काम करना चाहिए। गुरुदेव चौबे का चुनिंदा गद्य राष्ट्रीय ख्याति की मांग करता है। कोई उसे उपलब्ध कराएगा? सरकारी प्रकाशनों में जो कुछ छनकर आ रहा है वह प्रशंसा योग्य नहीं है। दोयम दर्जे के लोग इतिहास के एक्स्ट्रा खिलाड़ी होते हैं। उन पर बहुत अधिक वक्त और ध्यान देने की ज़रूरत नहीं है। खिलाड़ियों में भी एरमन बेस्टियन के लिए क्या किया गया है?
आइंस्टीन का एक अमर वाक्य यादध्यानी की प्रकृति का है। उन्होंने कहा था कि भविष्य की पीढ़ियां यह कठिनाई से विश्वास करेंगी कि गांधी जैसा हाड़ मांस का कोई व्यक्ति इस धरती पर आया भी होगा। इशारा यह है कि गांधी की असंभव संभावनाओं के कारण लोग उन्हें भी भूल जाएंगे। वे सरकारी प्रयत्न जो मरणासन्न स्मृतियों को अमर करने का मुगालता पालते हैं इतिहास की पहली फुरसत में दफ्न हो जाते हैं। पूरे इंग्लैंड में शेक्सपीयर, वर्ड्सवर्थ, न्यूटन वगैरह के आवासों और कार्यस्थलों को इतनी अच्छी तरह संरक्षित किया गया है कि वे वर्तमान के प्रतीकों के रूप में लगते हैं। और तो और मैडम थुसाद का मोम घर क्या यही कुछ नहीं करता। हमने तो विवेकानंद, मुक्तिबोध, स्वामी आत्मानंद, रविशंकर शुक्ल, बख्शीजी, मुकुटधर पांडेय, हबीब तनवीर वगैरह के घरों की भी संभाल कहां की है। और क्या करना भी चाहते हैं। गुरु घासीदास विश्वविद्यालय से श्रीकांत वर्मा सृजनपीठ को गायब कर दिया गया और मुक्तिबोध को तो पूरे पाठयक्रम से। हम भी तो नारायणदत्त तिवारी हैं। और ये हमारे वरिष्ठ बंधु कॉलरिज़ की नस्ल के। पता नहीं पीनक में कौन है?
कनक तिवारी
सीनियर एडवोकेट
मो 94252-20737
99815-08737
मुख्यमंत्री रमन सिंह के नाम खुला पत्र
25 जुलाई 2009, रायपुर
मुख्यमंत्री जी,
राज्य के पुलिस प्रमुख और अन्य प्रशासकीय तथा राजनीतिज्ञ सलाहकारों से सहमत होते हुए बुद्धिजीवियों और मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को लगभग उलाहने के स्वर में आपने यही बार-बार आव्हान किया है कि वे राज्य सरकार की आलोचना करने के बदले नक्सलियों के खिलाफ क्यों नहीं लिखते. आपकी 'रियाया' होने के कारण मैंने इस सलाह पर अमल किया है और समाचार पत्र इसके प्रमाण हैं.
यह अलग बात है कि नक्सली हिंसा के बरक्स राज्य की हिंसा एक बड़ा खतरनाक प्रयोग है जो आज़ादी के बाद से ही भारत की चिंता का विषय रहा है. छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद नासूर की तरह फैल गया है. वह मलेरिया के बुखार की तरह आए दिन मनुष्यता को ही तबाह करता है और बाकी दिन जब ऐसे बुखार की तरह तापमान छोड़ देता है जिसे सामाजिक थर्मामीटर माप नहीं पाता, तब सरकारी तंत्र के अत्याचार बदस्तूर कायम रहते हैं.
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विकास की समझ की संवैधानिकता
भारतीय संविधान की अंतर्भूत समझ में कुछ बद्धमूल अवधारणाएं निहित और प्रतिपादित हो गई हैं। इनके अनुसार राज्य अर्थात प्रकारांतर से कार्यपालिका को ही यह संवैधानिक अधिकार है कि वह उन अनेक आधारों को तय कर दे जिनके कारण राज्य में आम जनता को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय दिया जाना व्यक्त होता हो। न्यायपालिका को केवल सीमित अधिकार दिए गए हैं और वह भी एक पारंपरिक भाष्य की समझ का आविष्कार करते हुए कि न्यायपालिका की सीमा विधायन के उद्देश्यों को व्याख्यायित करने मात्र तक सीमित है। उसे अपने विवेक तथा तर्क के अनुसार किसी भी रचे गए विधायन अथवा नीति विषयक मुद्दों को टटोलने या उलट पलट करने की कोशिश नहीं करनी है। भारतीय न्यायपालिका भी अधिकार के इस बटवारे को लेकर कमोबेश संतुष्ट ही नजर आती है। उसकी यह समझ लगातार निर्णयों में खुलती जा रही है कि उसे विधायन के दोषों की सर्वांग समीक्षा नहीं करनी है, भले ही विधायन उसके विवेक में आम जनता के प्रति निर्दय भी नज़र आता हो।
कार्यपालिका की न्याय संबंधी ताजा समझ का उदाहरण एक नए लोकप्रिय प्रचलित और महत्वपूर्ण शब्द 'विकास' को लेकर है। यह तय करने का काम कार्यपालिका ने अपने जेहन में ले लिया है कि सभी तरह की शासन-संस्थाओं में ही संवैधानिक शक्ति का एकाधिकार होता है कि वे विकास के अर्थ और उसके आयाम तथा प्रक्रिया के संबंध में अपना अंतिम मत व्यक्त करें। उसके अनुसार न्यायपालिका को इसी बात से संतुष्ट रहना चाहिए कि वह यही देखने के लिए संविधान में निर्मित हुई है कि क्या ऐसे निर्णयों और नीतियों का अनुपालन हो रहा है। न्यायपालिका को कार्यपालिका की विकास संबंधी व्याख्यात्मक, प्रतिपाद्य अवधारणाओं की समझ का पुनराविष्कार करने की न तो पात्रता है और न ही ज़रूरत। न्यायपालिका राज्य के निर्णयों और नीतियों में खोट देखने के लिए तब ही सक्षम होगी जब ऐसे प्रावधान संविधान के अनुच्छेदों के पूरी तौर पर विपरीत हों अथवा ऐसे निर्णयों और नीतियों में कार्यपालिका का दुराग्रह सतह पर छलक छलक आता हो। लेकिन यदि कार्यपालिका नवोन्मेष के उत्साह में चतुराई से लिखे निर्णयों और नीतियों में कुछ नए प्रयोग करे जिससे संविधान द्वारा बनाए गए निषेधों का भी उल्लंघन होता प्रतीत हो तो भी न्यापालिका को ऐसे पचड़े में पड़ने की ज़रूरत नहीं है। भले ही ऐसे सत्ता-निर्णय जनता के हितों के विपरीत जाते नज़र भी आते हों। संविधान के अनुच्छेद 4 में नीति निदेशक तत्वों की सदाबहार नुमाइश है। इनमें वे क्षितिज और आकाश गूंथे गए हैं जो आम आदमी के हितों के लिए सरकार की प्रतिबद्धताओं में शुमार हैं। एक महत्वपूर्ण उद्घोषणा यह भी रही है कि राज्य श् वर्ष से अधिक तथा 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए अनिवार्य शिक्षा का प्रबंध 10 वर्षों में करे लेकिन 6 वर्ष बीत जाने जाने पर ही अब ये संभावनाएं धीरे धीरे साकार की जा रही हैं। बंधुआ मजदूरों की मुक्ति, यौन शोषण से मुक्ति और बाल श्रमिकों की मुक्ति जैसे महत्वपूर्ण उल्लेख आज भी संविधान और शासन से पनाह मांग रहे हैं। इनका दूर होना तो दूर संख्या बेवजह और बेतरह बढ़ रही है और संविधान है कि चुप है।
विकास की अवधारणा का प्रसव करने की जिम्मेदारी यदि कार्यपालिका ने अपने ऊपर ली है तो उसका न्यूक्लियस नौकरशाही को बना दिया गया है और संविधान की समझ को वही अपने कंधों पर उठाए हुए है। वह गर्वोन्मत्त है कि संविधान के प्रावधानों के अभाव में भी वही कार्यपालिका का रूपांतरित अभिनेता है और भारतीय न्यायपालिका तथा जनता को उसकी समझ से ही विकास की अवधारणाओं को समझने पर मजबूर होना पड़ेगा। न्यायपालिका ने तो यह बहुप्रचारित स्वत: स्फूर्त अवधारण्शा ओढ़ ली है कि वह विकास संबंधी संलिष्ट विचारों को कार्यपालिका के संविधानिक दायरे में समझती है। इस कारण नौकरशाही तक के सामने वह अप्रत्यक्ष रूप से लाचार हो जाती है। तुर्रा यह भी कि जनता को तो इस संबंध में कोई अधिकार ही नहीं दिए गए हैं। संविधान के भाग 3 में जनता को मूल अधिकार दिए गए हैं। वे नकारात्मक भाषा में हैं अर्थात राज्य कतिपय अधिकारों को जनता से यदि छीनने की कोशिश करेगा तो (ही) संविधान उनके आड़े आएगा। संविधान में इस बात के लेकिन अधिकार नहीं हैं कि जनता का विवेक, समझ और निर्णय कार्यपालिका और नौकरशाही के विकास संबंधी निर्णयों और नीतियों का पुनरावलोकन कर सकें। 'मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक' के मुहावरे के अनुरूप जनता ऐसे मुद्दों को लेकर केवल संवैधानिक न्यायालयों तक ही जा सकती है और कहीं नहीं, लेकिन संविधान न्यायालयों ने तो पहले से ही अपनी सरहदें खुद बांध रखी हैं। इस तरह विकास की जो नई वैश्वीकृत अवधारणाएं जनता की छाती पर मूंग दल रही हैं, उनका बाल बांका होने की संवैधानिक संभावनाएं ही एक तरह से खत्म हो चुकी हैं। एक कलेक्टर या इंजीनियर या डेवलपर द्वारा बनाई गई परियोजनाएं उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक शक्तियों से बेखबर या बाखबर होने के बावजूद कभी कभी ही क्षतिग्रस्त हो पाती हैं। उन्हें यह बता दिया जाता है कि भारतीय संविधान जनित न्यायिक संस्थाएं तलवार से सब्जी नहीं काटने जैसे मुहावरों को चरितार्थ करती हुईं आम जनता के अस्तित्व, समझ और भविष्य पर लादी जाती विकास योजनाओं के समर्थन में ही रहेंगी। इसीलिए देश में जगह जगह जन आंदोलनों का जो विस्फोट होता है उसके अनेक प्रत्यक्ष कारणों से अलग हटकर ऐसे अप्रत्यक्ष कारण भी मौजूद हैं जो जनता को न्यायपालिका की लगभग असमर्थता के कारण विकास की नई घातक अवधारणाओं और परियोजनाओं से नहीं बचा पाते हैं। नन्दी ग्राम और सिंगूर इसके सफलतम ताजा जन-समर्थक उदाहरण हैं।
विकास की अवधारणा का मुख्य तर्क यही होता है कि समाज और जनता का लगातार सघन और सर्वसुलभ आर्थिक विकास हो जाए या होता रहे। भारत की पंचवर्षीय योजनाओं में गरीब आदमी के आर्थिक उत्थान का वाचाल बड़बोलापन गूंजता रहा लेकिन अमल में बहुत कुछ नहीं हो पाया। विशषकर नीति निदेशक सिद्धांतों में जो अवधारणाएं उल्लिखित रहीं उन्हें साकार करना मुश्किल ही नज़र आया। इसके अतिरिक्त विशषकर मूलभूत अधिकारों के परिच्छेद 17, 23 और 24 की उद्देशिकाएं जनता की उम्मीदों पर कहां खरी उतरी हैं। ये अधिकार संविधान में निम्नलिखित अनुसार वर्णित हैं-
17 अस्पृश्यता का अंत- ''अस्पृश्यता'' का अंत किया जाता है और उसका किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध किया जाता है। ''अस्पृश्यता'' से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा।
23 मानव के दुर्व्यापार और बलात्श्रम का प्रतिषेध-(1) मानव का दुर्व्यापार और बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य बलात्श्रम प्रतिषिद्ध किया जाता है और इस उपबंध का कोई भी उल्लंघन अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा।
(2) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए अनिवार्य सेवा अधिरोपित करने से निवारित नहीं करेगी। ऐसी सेवा अधिरोपित करने में राज्य केवल धर्म, मूलवंश, जाति या वर्ग या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।
24 क़ारखानों आदि में बालकों के नियोजन का प्रतिषेध-चौदह वर्ष से कम आयु के किसी बालक को किसी कारखाने या खान में काम करने के लिए नियोजित नहीं किया जाएगा या किसी अन्य परिसंकटमय नियोजन में नहीं लगाया जाएगा।
विकास की बुनियादी अवधारणाओं में भारत जैसे कृषि प्रधान देश के संदर्भ में भूमि और कृषि संबंधी सुधारों का मुख्य उद्देश्य रहा है। भूमि सुधार से आशय है कि कृषि उत्पादों और कृषि भूमि की उत्पादकता को विकसित किया जाए और इससे न केवल कृषि के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल की जाए बल्कि विश्व बाज़ार में कृषि उत्पादों को निर्यात करने की स्थिति को प्राप्त किया जाए। इस तरह विकास का कृषि के संदर्भ में यही अर्थ हुआ कि कृषि उत्पादों का सक्षम और आधुनिक प्रबंधन ही विकास की अवधारणा का सही अर्थ है। कृषि भूमियों के सुधार का यही शासकीय अर्थ समझाया गया कि राज्य के प्रोत्साहन से भूमियों का समान वितरण्श, कर्ज़ से उन्मुक्ति, कृषि मज़दूरों के अधिकारों की सुरक्षा और मालगुजारों अथवा कुलाक लॉबी का उन्मूलन करना ही विकास की अवधारणा का मूलमंत्र है। इसके बरक्स विशष आर्थिक क्षेत्र (SEZ) जैसी बदनुमा परिकल्पना किसानों की भूमियों पर लाद दी गई है जिसे विदेशी क्षेत्र कह दिया गया है अर्थात् वहां भारत के कानून लागू नहीं होंगे।
विकास की अवधारणा ने प्रकारांतर से राज्य को राज्य-जनित पूंजीवाद के प्रवर्तक और पोषक की श्रेणी में खड़ा कर दिया है। राज्य लगातार इस बात का दावा करता है कि वह सभी तरह के आर्थिक कानूनों के प्रतिफलन और दोषों की समीक्षा करने का एक मात्र अधिकारी है। इसके विपरीत लेकिन यह बाज़ारवाद है जो राज्य के दावों की खुले आम या तो खिल्ली उड़ाता है या उससे हमसफर होकर ऐसी योजनाएं निर्धारित करता है जिससे राज्य को समीक्षा करने का गुमान तो कायम रहे लेकिन उसके पैरों के नीचे से पूरी दरी ही खींच ली जाए। राज्य ने कंट्रोल राज स्थापित कर रखा था जिसके जरिए व्यापारिक वृत्तियों पर नियंत्रण का शिकंजा कसने के नाम पर सार्वजनिक क्षेत्र और सरकारी अमले की ओहदेदारी को लाभान्वित होने का आरोप लगाया जाता रहा। अचानक राज्य ने सभी तरह के नियंत्रण विकास को तेज गति से महसूस करने के नाम पर हटा लिए। पहले के भ्रष्टाचार, अकुशलता, भाई भतीजावाद और फिजूलखर्ची का स्थान निहित स्वार्थों के निजी क्षेत्र ने हथिया लिया है।
राज्य पहले (और अब भी) संविधान की मंशाओं के कारण कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अपने एकाधिकार को पूरी तौर पर नष्ट नहीं कर पाया है और न ही कर पाने की पूरी संभावना की अनुमति संविधान शायद दे पाएगा। लोहा, कोयला, सैन्य सामग्री, आणविक ऊर्जा आदि के क्षेत्रों में राज्य सुरक्षा और आर्थिक बुनियाद की मजबूती के आधारों पर निजी क्षेत्र के सामने घुटने टेकने की स्थिति में नहीं है। हालांकि इनमें से कई क्षेत्रों में राज्य का साम्राज्य दरक गया है। वैश्वीकरण की तेज़ आंधी को राज्य द्वारा आमंत्रण देने के कारण कई बड़े बड़े पुख्ता सार्वजनिक क्षेत्र या तो उखड़ गए हैं या ऐसे बड़े बड़े पेड़ चरमरा गए हैं। इस्पात, सीमेंट, अल्यूमिनियम जैसे इन्फ्रास्ट्रक्चरर उत्पादों को लेकर राज्य का एकाधिकार खत्म तो हो ही गया है वह धीरे धीरे आम जनता के हितों की सुरक्षा नहीं करता हुआ ऐसी बहुत से वस्तुओं को आवश्यक वस्तुओं की परिभाषा में भी नहीं रख पाया है। वह नर्मदा सागर, टिहरी परियोजना और बाल्को कारखाना के विक्रय को लेकर अजीबोगरीब आचरण तो करता है, सुप्रीम कोर्ट से समर्थन भी पा लेता है।
पिछले वर्षों में लगातार आम जनता की गरीबी की दर तेजी से बढ़ी है। दादा भाई नौरोजी ने अपनी क्लासिक कृति 'पॉवर्टी एण्ड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया' में भारत की जिस गरीबी का चित्रण किया था उसकी पुनरावृत्ति इंदिरा गांधी के दिए गए नारे 'गरीबी हटाओ' में सत्तर के दशक में गूंजी। तथाकथित हरित क्रांति की शुरुआत करने की कोशिश की गई और उसे आर्थिक सिद्धांतों का नया प्रमेय बनाया गया। इस आर्थिक मुहावरे की आड़ में अरबपतियों ने काले धन की कमाई को सफेद बनाने के नए नए रास्ते भी सरकारों की अप्रत्यक्ष मदद से ढूंढ़ लिए और वहीं दूसरी ओर सरकार की नीतियों की विफलता और नौकरशाही के अत्याचार का भांडा फोड़ते हुए नक्सल आंदोलन जैसे हिंसक प्रकल्प भी किसानों के हित में भारतीय राजनीति में उद्भूत हुए। इसी अवधि में राज्य ने अपने आर्थिक तंत्र और जनता को उसका दाय देने के मकसद से बैंकों और बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण किया और उसे विशषकर ग्रामीण आर्थिकी को सुधारने वाला कदम बताया।
आर्थिक विकास में क्षेत्रीय असंतुलन होने के कारण एक तरह का आर्थिक संघवाद संविधान के अंदर उग आया जब राज्यों की आर्थिक स्थिति और प्राकृतिक संसाधनों की स्वायत्तता के समीकरण को ध्यान में रखकर उन्हें दिए जा सकने वाले राजस्व का वितरण भारतीय वित्त आयोग के जरिए निर्धारित किया जाने लगा। इससे राज्यों के विकास की स्थितियां और अधिकार केन्द्र द्वारा नियंत्रित, नियमित और निर्गमित किए जाते रहे। कुछ राज्यों ने (असम तथा गुजरात) ने उनके प्राकृतिक संसाधनों पर मिलने वाली रॉयल्टी आदि की राशि को लेकर न्यायालयों तक में दस्तक दी। केन्द्रीय वित्त आयोग की भूमिका असरकारी होने से उसका एक तरह से राज्य की सरकारों पर अप्रत्यक्ष आर्थिक नियंत्रण भी दिखाई पड़ने लगा।
विकास की अवधारणा को लेकर तरह तरह के राजनीतिक प्रयोग और आंदोलन इसी दरम्यान सतह पर आते गए। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में किया गया संपूर्ण क्रांति का आंदोलन संवैधानिक विकास की राह का एक मील का पत्थर है। यह अलग बात है कि उस आंदोलन ने संविधान की अनदेखी में खामियां ढूंढ़ने के बदले राजनीतिक प्रक्रिया में ही जनविरोधी आचरण की शिकायत और पड़ताल की। इंदिरा गांधी द्वारा देश में आपातकाल लगाए जाने के बाद संविधान में लाया गया बयालीसवां संशोधन एक ओर राज्य अर्थात केन्द्र को लगभग तानाशाह की स्थिति में लाने का उपक्रम करता रहा तो वहीं दूसरी ओर उसमें कई ऐसे संशोधन भी गूंथे गए जिनसे उसका चेहरा जनाभिमुखी दिखाई दे। इसी दरम्यान स्त्रियों के तरह तरह के आंदोलनों को उद्भव, संरक्षण और प्रोत्साहन का अवसर मिला जिससे विकास की अवधारणा का भी सीधा संबंध है।
विकास की अवधारणा को लेकर संविधान में एक महत्वपूर्ण संशोधन तब हुआ जब नीति निदेशक सिद्धांतों के अध्याय में उल्लिखित पंचायती राज और नगर पालिक संस्थाओं को संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के द्वारा संवैधानिक दर्जा दिया गया। अनेक तरह के प्राथमिक और मैदानी विकासों की जिम्मेदारियों से इन संस्थाओं को युक्त घोषित किया गया ताकि उच्च कुलीन राजनीतिक संस्थाओं पर उनकी निर्भरता कम हो। यह एक तरह का महत्वपूर्ण राजनीतिक निर्णय हुआ क्योंकि हिंदुस्तान की आज़ादी के आंदोलन के सबसे बड़े मसीहा महात्मा गांधी ने स्वतंत्र भारत का ढांचा गांवों के चतुर्दिक विकास की बुनियाद पर रखने का आव्हान किया था। यह अलग बात है कि संविधान की इबारतों में महात्मा गांधी के सपनों के चकनाचूर होने की कथा मर्माहत स्वर में गूंजती रहती है। फिर भी किसी न किसी रूप में स्वायत्तशासी राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा देने से एक महत्वपूर्ण राजनीतिक उपक्रम की शुरुआत का श्रेय उन अवधारणाओं को दिया जा सकता है जो गांवों और नगरों के आर्थिक विकास को लोकतंत्र की रीढ़ मानती हैं। यहां ठहरकर यह देख लेना भी मुनासिब होगा कि ग्राम पंचायतों का अर्थतंत्र पूरी तौर पर राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के श्रेष्ठि वर्ग पर आवंटन, व्यय और पश्चातवर्ती जांच को लेकर लगभग एकाधिकार की मुद्रा में निहित होता है। संविधान की इस आर्थिक व्याख्या के संदर्भ में आम आदमी लगभग पराजय की भूमिका में है। उसे लगता है कि संविधान में ऐसा कुछ अंतर्निहित है जो उसकी समझ के लिए नहीं रचा गया है। वह संविधान की पोथी को हाथ लगाने से भी डरता है क्योंकि उसमें उसके लिए ऐसा कोई पाठ नज़र नहीं आता जिसे वह आत्मसात कर सके।
समकालीन भारत की आर्थिक मुश्किलों और चुनौतियों को वैश्वीकरण के लिहाफ ने ओढ़ रखा है। संवैधानिक न्याय का इस आर्थिक घटना से सीधा संबंध है। संपत्ति संबंधी अवधारणाएं वैश्वीकरण के कारण पूरी तौर पर गऔमगऔ हो गई हैं। संविधान की आयतों की अनदेखी करता हुआ वैश्वीकरण का झंझावात उत्पादन के साधनों पर एकाधिकार के नियंत्रण का समर्थन करता है और निजी उद्योगों और पूंजी पर सभी तरह के शासनियंत्रण की हेठी करता है। वैश्वीकरण को आर्थिक संसाधनों के समान वितरण बल्कि गरीबोन्मुखी होने से सरोकार तो है ही नहीं बल्कि एक तरह का परहेज है। यह अचरज है कि तथाकथित वैश्वीकरण जिन पश्चिमी मुल्कों से आया है वहां प्रजातांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था न केवल मजबूत है बल्कि बहुत पुरानी भी है। पूंजीवाद और प्रजातंत्र का घालमेल पश्चिमी देशों में लगातार रहा है-इस बात से भारतीय संविधान सभा के सदस्य अच्छी तरह परिचित थे। इसीलिए उन्होंने भारत के संविधान में इतनी सावधानियां बरतीं कि संविधान कथित बुर्जुआ लोगों द्वारा निर्मित कहा जाने पर भी पूंजीवाद का पैरोकार नहीं दिखाई देता। संविधान के लागू होने के बाद जब धनाढय वर्ग ने संविधान में वर्णित संपत्ति संबंधी अवधारणाओं को चुनौती देना शुरू किया तो उच्चतम न्यायालय में उस अग्रसोची क्रांतिधर्मिता का लोप दिखाई पड़ा जो भारत जैसे गरीब लोकतांत्रिक देश की भविष्य की पीढ़ियों के लिए ज़रूरी और उपादेय था। इसलिए भारतीय संसद को जनसमर्थन के दबाव के कारण संविधान में लगातार संशोधन करने पड़े जिससे संपत्ति संबंधी मूल अवधारणाओं पर पड़े न्यायिक मकड़जाले को साफ करना ज़रूरी जनतांत्रिक प्रक्रिया समझा गया।
अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय और मौद्रिक दबावों से विकासशील देश सबसे अधिक प्रभावित रहे हैं। यह विपर्यय है कि अमूमन वे देश जो अपनी आज़ादी के वक्त विकासशील कहे जाते रहे हैं, भारत की तरह आधी सदी से ज्यादा बीत जाने पर भी विकासशील ही कहे जा रहे हैं। संविधान पर वैश्वीकरण का असर यह हुआ है कि संविधान को दरकिनार कर भारतीय प्रशासन विकास की अवधारणा को फलीभूत करना संविधान का इस तरह मूल मकसद समझता है जिससे भले ही भारत की जनता को उसके अधिकारों से च्युत किया जा सके लेकिन यह दिखाई पड़े और समझाया जा सके कि यह पूरा विकास तो जनता के लिए ही किया जा रहा है। यह एक तरह का श्लेष है जिससे भारतीय जनता अपने राजनीतिक अधिकारों की लड़ाई को फिलहाल स्थगित समझे क्योंकि देश में इस समय आर्थिक ढांचागत विकास की प्रक्रिया जारी है। इस पूरे प्रकल्प को सहयोग देकर आगे बढ़ाने के लिए स्वैच्छिक संगठनों की एक नई संस्था या परिकल्पना का विधिवत आविष्कार किया गया है। स्वैच्छिक संगठन इस तरह ज़रूरी बताए गए हैं कि सरकारों के पास वित्तीय साधन उपलब्ध होने के बावजूद कुशल मानव टीम नहीं है जो योजनाओं को अमल में ला सके। इसलिए सरकार की सहवर्ती संस्था के रूप में स्वैच्छिक संगठनों का इतना अधिक जाल बुना गया कि उन्हें समानांतर सरकार कहने में गुरेज नहीं होना चाहिए। इनमें से अधिकांश स्वैच्छिक संगठन पंजीकृत संस्थाएं हैं। उनमें मैनेजमेंट की कला का हुनर है। अधिकतर स्वैच्छिक संगठन उद्योगपतियों और नौकरशाहों के सीधे नियंत्रण में हैं। वे घाटे में चलने वाली संस्थाएं नहीं हैं बल्कि एक तरह का लाभ कमाने वाले उद्योग हैं। वे निश्चित रूप से कुछ न कुछ विकास तो करते हैं लेकिन जितने अधिक सरंजाम के साथ उन्हें सक्रिय किया गया है उसके अनुपात में उन्हें समाज सेवक जैसी संज्ञा से विभूषित भी नहीं किया जा सकता। इनमें से अधिकांश स्वैच्छिक संगठन सीधे सीधे सरकारी और अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक अनुदान पर निर्भर होते हैं। उनमें वह देशज भावना नहीं होती जिसके कारण वे विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में स्वावलंबन का पाठ पढ़ाएं। आर्थिक विकास की अवधारणाओं ने ऐसा एक नया माहौल देश में बना दिया है जिससे संविधान की मंशाएं एक तरह से विखंडित होती जा रही हैं। फिर भी भारतीय संविधान एक अनवरत आव्हान है जिसे बाज़ारवाद की वैश्विक आंधी से निपटने का जोखिम तो उठाना पड़ेगा।
कॉमरेड विनोद, लाल सलाम!
छत्तीसगढ़ की किंकर्तव्यविमूढ़ सरकार को अब तक की सबसे बड़ी चुनौती देते हुए नक्सलियों ने प्रदेश के सबसे ईमानदार और कुशल पुलिस अधिकारी विनोद चौबे सहित कोई छत्तीस पुलिस जवानों की आखिरकार हत्या कर ही दी। नक्सली हिंसा के इतिहास में यह अब तक का सबसे खतरनाक और क्रूर हमला राज्य की सरकार पर हुआ है। इस घटना के दो दिन पहले मुख्यमंत्री ने साहित्यकारों के एक बड़े सम्मेलन को संबोधित करते हुए अनावश्यक रूप से नक्सली समस्या का उल्लेख किया और देश के विभिन्न इलाकों से आए साहित्यकारों पर व्यंग्य कसा कि क्यों नहीं उन्हें नक्सलियों के खिलाफ लिखना चाहिए। समाचार के अगले दिन प्रकाशित होने के 24 घंटों के अंदर नक्सलियों ने मुख्यमंत्री को उनके गृह जिले में ही खूंखार चुनौती दे डाली है। यह अलग बात है कि राजनीतिक अपरिपक्वता और बड़बोलेपन का खमियाजा निम्न मध्य वर्ग के उन गरीब परिवारों को भुगतना पड़ा जिनके होनहार युवक पेट की रोटी कमाने की गरज से पुलिस में भर्ती हुए हैं ताकि प्रदेश की जनता की रक्षा कर सकें।
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फिर से हिंद स्वराज
1. निपट देहाती औसत हिन्दुस्तानी की खोपड़ी, चमकती हुई, कभी शरारतपूर्ण तो कभी करुणामय ऑंखें, इकहरी देह के बावजूद सिंह-शावक की सी बौद्धिक चपलता, बेहद पुराने फैशन की कमरखुसी घड़ी, एक सदी पुराने फैशन का चश्मे का फ्रेम, गड़रिए की सी लाठी, सड़क किनारे बैठे चर्मकार के हाथों सिली सेंडिलनुमा चप्पलें, अधनंगा बदन-ये भारत के सबसे महान् योद्धा के कंटूर हैं, जिनसे सात समुन्दर पार भी सूरज अस्त नहीं होने वाले ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हुक्मरानों ने धोखा खाया.
अपने बचपन से मुझे गांधी कभी बूढ़े, लिजलिजे या तरसते नहीं लगे. दहकते प्रौढ़ अंगारों के ऊपर पपड़ाई राख जैसा उनका पुरुष व्यक्तित्व बार-बार लोगों को प्रश्नवाचक चिन्ह की कतार में खड़ा करता रहा. प्रचलित समझ के विपरीत मैंने गांधी को ऋषि, संत, मुनि या अवतार जैसा नहीं देखकर करोड़ों भारतीय सैनिकों के युयुत्सु सेनापति के रूप में देखा है. मुझे गांधी के अन्य रूपों में न तो दिलचस्पी रही है और न ही वे मेरी गवेषणा के विषय बने हैं.
2. गांधी की याद को पुन: परिभाषित करना साहसिक, रूमानी और मोहब्बत भरा काम है. यह तो सरल है कि उन्हें प्रचलित अर्थ में ही समेटा जाए और बार-बार गांधी को ऐसी सोहबत में बिठाया जाए जिससे उन्हें उद्दाम समुद्र या तेज तरंगों में बहते किसी महानद के मुकाबले छोटा सा तालाब बनाया जाए. इस तरह के गांधी-यश से सडांध की बू आने लगी है.
लोग गांधी क्लास में पास होने, एक गाल पर थप्पड़ खाने के बाद गांधी शैली में दूसरा गाल सामने करने और सुसंस्कृत जीवन के हर छटा-विलोप में गांधी दर्शन दिखाकर उसका इतना मजाक उड़ा चुके हैं कि इस बूढे आदमी के साथ रहने में मन वितृष्ण हो जाता है.
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सिंगूर में लखटकिया गरीबी के चोचले
आज सुबह के अखबारों में दो खबरें पढ़ीं. बाटा उद्योग के संस्थापक तथा कथित भारत मित्र थॉमस बाटा का टोरंटो में निधन हो गया. सिंगूर में रतन टाटा को अपनी लखटकिया कार नैनो के कारखाने पर ताला जड़ना पड़ा. बचपन में पढ़ी बेधड़क (या शायद बेढब) बनारसी की पंक्तियां उभर आईं- “देश में जूता चला, मशहूर बाटा हो गया / देश में लोहा गला, मशहूर टाटा हो गया / योजनाएं यूं चलीं, जैसे छिनालों की जबान / हम जमा करते रहे, खाते में घाटा हो गया”
मेरे मित्र अशोक वाजपेयी और राजेन्द्र मिश्र ऐसे कवियों को कवि नहीं मानते लेकिन ये पंक्तियां कितनी मौजू हैं. बाटा के जूतों की हालत थॉमस बाटा के गिरते स्वास्थ्य की तरह होती गई है. बाटा की फैक्टरी के मजदूरों के साथ कलकत्ता में ही बहुत अन्याय हुआ है. फिर भी बाटा भारत में कुछ प्रसिध्द अंग्रेजी कंपनियों ए.एच. व्हीलर, कॉलगेट और ब्रिटेनिया की तरह मशहूर और स्वीकार्य तो रहे हैं.
टाटा का परिवार वही है जिसने देश में स्वामी विवेकानंद के आग्रह पर जमशेदपुर में पहला इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ साइंस स्थापित किया था. इस परिवार के पुरखे बुढ़ापे तक लंबी हवाई यात्राओं का कीर्तिमान बनाते रहे. उन्हें ताजमहल के रखरखाव का ठेका दिया जाना भी प्रस्तावित था. इधर वैश्वीकरण के दौर में वे छत्तीसगढ़ और झारखंड सहित अनेक राज्यों में कारखानों की स्थापना के नाम पर गरीबों और आदिवासियों की जमीनों को सरकारों की मदद से हड़प करने के काम में भी लगे हुए हैं.
गांधी और हिन्दू परम्परावादी
तीस जनवरी को पूरा देश बल्कि दुनिया राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या की बरसी मनाती है. कैलेंडर में 30 जनवरी का दिन वक्त की निरंतरता के माथे पर कील की चोट उगाता हुआ हर साल आता है. इस दिन सूरज कोई घंटे-पौन घंटे पहले ढल गया था. तब से लेकर आज तक 30 जनवरी का सूरज संदिग्ध हो गया है. इतिहास में कुछ हत्याएँ ऐसी हुई हैं, जिन्होंने एक ही शैली के अलग-अलग कारणों से धरती की ही छाती पर त्रासदी की फसलें उगाई हैं. बापू की हत्या उन सब में जघन्यतम है.
सत्य की दार्शनिक उपपत्ति के कारण सुकरात को जहर का प्याला पीना पड़ा. सत्य की आदर्शोन्मुख सार्वजनिकता को लेकर ईसा को सूली पर चढ़ना पड़ा. सत्य की ही खातिर हरिश्चंद्र ने अपना सब कुछ सांसारिक नुकसान किया. लेकिन गांधी सत्य के अन्वेषक, उन्मेषक या व्यक्तिगत उपभोक्ता नहीं थे. गांधी सत्य के मात्र प्रचारक भी नहीं थे, बल्कि आग्रही थे. वे किसी जिद्दी, हठवादी की मनुमुद्रा में सत्य को राजनीतिक, सामाजिक हथियार के बतौर इस्तेमाल करने के रणनीतिकार थे. परंतु ऐसा वह आत्मा की उसी शुध्दता के साथ करने के कायल थे जो अन्यथा सत्य-पोषकों का स्वत्व रही है.
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