गांधी और हिन्दू परम्परावादी

तीस जनवरी को पूरा देश बल्कि दुनिया राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या की बरसी मनाती है. कैलेंडर में 30 जनवरी का दिन वक्त की निरंतरता के माथे पर कील की चोट उगाता हुआ हर साल आता है. इस दिन सूरज कोई घंटे-पौन घंटे पहले ढल गया था. तब से लेकर आज तक 30 जनवरी का सूरज संदिग्ध हो गया है. इतिहास में कुछ हत्याएँ ऐसी हुई हैं, जिन्होंने एक ही शैली के अलग-अलग कारणों से धरती की ही छाती पर त्रासदी की फसलें उगाई हैं. बापू की हत्या उन सब में जघन्यतम है.

सत्य की दार्शनिक उपपत्ति के कारण सुकरात को जहर का प्याला पीना पड़ा. सत्य की आदर्शोन्मुख सार्वजनिकता को लेकर ईसा को सूली पर चढ़ना पड़ा. सत्य की ही खातिर हरिश्चंद्र ने अपना सब कुछ सांसारिक नुकसान किया. लेकिन गांधी सत्य के अन्वेषक, उन्मेषक या व्यक्तिगत उपभोक्ता नहीं थे. गांधी सत्य के मात्र प्रचारक भी नहीं थे, बल्कि आग्रही थे. वे किसी जिद्दी, हठवादी की मनुमुद्रा में सत्य को राजनीतिक, सामाजिक हथियार के बतौर इस्तेमाल करने के रणनीतिकार थे. परंतु ऐसा वह आत्मा की उसी शुध्दता के साथ करने के कायल थे जो अन्यथा सत्य-पोषकों का स्वत्व रही है.

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कनक तिवारी