सिंगूर में लखटकिया गरीबी के चोचले

आज सुबह के अखबारों में दो खबरें पढ़ीं. बाटा उद्योग के संस्थापक तथा कथित भारत मित्र थॉमस बाटा का टोरंटो में निधन हो गया. सिंगूर में रतन टाटा को अपनी लखटकिया कार नैनो के कारखाने पर ताला जड़ना पड़ा. बचपन में पढ़ी बेधड़क (या शायद बेढब) बनारसी की पंक्तियां उभर आईं- “देश में जूता चला, मशहूर बाटा हो गया / देश में लोहा गला, मशहूर टाटा हो गया / योजनाएं यूं चलीं, जैसे छिनालों की जबान / हम जमा करते रहे, खाते में घाटा हो गया” 

मेरे मित्र अशोक वाजपेयी और राजेन्द्र मिश्र ऐसे कवियों को कवि नहीं मानते लेकिन ये पंक्तियां कितनी मौजू हैं. बाटा के जूतों की हालत थॉमस बाटा के गिरते स्वास्थ्य की तरह होती गई है. बाटा की फैक्टरी के मजदूरों के साथ कलकत्ता में ही बहुत अन्याय हुआ है. फिर भी बाटा भारत में कुछ प्रसिध्द अंग्रेजी कंपनियों ए.एच. व्हीलर, कॉलगेट और ब्रिटेनिया की तरह मशहूर और स्वीकार्य तो रहे हैं. 

टाटा का परिवार वही है जिसने देश में स्वामी विवेकानंद के आग्रह पर जमशेदपुर में पहला इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ साइंस स्थापित किया था. इस परिवार के पुरखे बुढ़ापे तक लंबी हवाई यात्राओं का कीर्तिमान बनाते रहे. उन्हें ताजमहल के रखरखाव का ठेका दिया जाना भी प्रस्तावित था. इधर वैश्वीकरण के दौर में वे छत्तीसगढ़ और झारखंड सहित अनेक राज्यों में कारखानों की स्थापना के नाम पर गरीबों और आदिवासियों की जमीनों को सरकारों की मदद से हड़प करने के काम में भी लगे हुए हैं.

आगे पढ़ें

0 comments:


कनक तिवारी