फिर से हिंद स्वराज

1. निपट देहाती औसत हिन्दुस्तानी की खोपड़ी, चमकती हुई, कभी शरारतपूर्ण तो कभी करुणामय ऑंखें, इकहरी देह के बावजूद सिंह-शावक की सी बौद्धिक चपलता, बेहद पुराने फैशन की कमरखुसी घड़ी, एक सदी पुराने फैशन का चश्मे का फ्रेम, गड़रिए की सी लाठी, सड़क किनारे बैठे चर्मकार के हाथों सिली सेंडिलनुमा चप्पलें, अधनंगा बदन-ये भारत के सबसे महान् योद्धा के कंटूर हैं, जिनसे सात समुन्दर पार भी सूरज अस्त नहीं होने वाले ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हुक्मरानों ने धोखा खाया.

अपने बचपन से मुझे गांधी कभी बूढ़े, लिजलिजे या तरसते नहीं लगे. दहकते प्रौढ़ अंगारों के ऊपर पपड़ाई राख जैसा उनका पुरुष व्यक्तित्व बार-बार लोगों को प्रश्नवाचक चिन्ह की कतार में खड़ा करता रहा. प्रचलित समझ के विपरीत मैंने गांधी को ऋषि, संत, मुनि या अवतार जैसा नहीं देखकर करोड़ों भारतीय सैनिकों के युयुत्सु सेनापति के रूप में देखा है. मुझे गांधी के अन्य रूपों में न तो दिलचस्पी रही है और न ही वे मेरी गवेषणा के विषय बने हैं. 

2. गांधी की याद को पुन: परिभाषित करना साहसिक, रूमानी और मोहब्बत भरा काम है. यह तो सरल है कि उन्हें प्रचलित अर्थ में ही समेटा जाए और बार-बार गांधी को ऐसी सोहबत में बिठाया जाए जिससे उन्हें उद्दाम समुद्र या तेज तरंगों में बहते किसी महानद के मुकाबले छोटा सा तालाब बनाया जाए. इस तरह के गांधी-यश से सडांध की बू आने लगी है. 

लोग गांधी क्लास में पास होने, एक गाल पर थप्पड़ खाने के बाद गांधी शैली में दूसरा गाल सामने करने और सुसंस्कृत जीवन के हर छटा-विलोप में गांधी दर्शन दिखाकर उसका इतना मजाक उड़ा चुके हैं कि इस बूढे आदमी के साथ रहने में मन वितृष्ण हो जाता है.

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कनक तिवारी