विकास की समझ की संवैधानिकता

भारतीय संविधान की अंतर्भूत समझ में कुछ बद्धमूल अवधारणाएं निहित और प्रतिपादित हो गई हैं। इनके अनुसार राज्य अर्थात प्रकारांतर से कार्यपालिका को ही यह संवैधानिक अधिकार है कि वह उन अनेक आधारों को तय कर दे जिनके कारण राज्य में आम जनता को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय दिया जाना व्यक्त होता हो। न्यायपालिका को केवल सीमित अधिकार दिए गए हैं और वह भी एक पारंपरिक भाष्य की समझ का आविष्कार करते हुए कि न्यायपालिका की सीमा विधायन के उद्देश्यों को व्याख्यायित करने मात्र तक सीमित है। उसे अपने विवेक तथा तर्क के अनुसार किसी भी रचे गए विधायन अथवा नीति विषयक मुद्दों को टटोलने या उलट पलट करने की कोशिश नहीं करनी है। भारतीय न्यायपालिका भी अधिकार के इस बटवारे को लेकर कमोबेश संतुष्ट ही नजर आती है। उसकी यह समझ लगातार निर्णयों में खुलती जा रही है कि उसे विधायन के दोषों की सर्वांग समीक्षा नहीं करनी है, भले ही विधायन उसके विवेक में आम जनता के प्रति निर्दय भी नज़र आता हो।

कार्यपालिका की न्याय संबंधी ताजा समझ का उदाहरण एक नए लोकप्रिय प्रचलित और महत्वपूर्ण शब्द 'विकास' को लेकर है। यह तय करने का काम कार्यपालिका ने अपने जेहन में ले लिया है कि सभी तरह की शासन-संस्थाओं में ही संवैधानिक शक्ति का एकाधिकार होता है कि वे विकास के अर्थ और उसके आयाम तथा प्रक्रिया के संबंध में अपना अंतिम मत व्यक्त करें। उसके अनुसार न्यायपालिका को इसी बात से संतुष्ट रहना चाहिए कि वह यही देखने के लिए संविधान में निर्मित हुई है कि क्या ऐसे निर्णयों और नीतियों का अनुपालन हो रहा है। न्यायपालिका को कार्यपालिका की विकास संबंधी व्याख्यात्मक, प्रतिपाद्य अवधारणाओं की समझ का पुनराविष्कार करने की न तो पात्रता है और न ही ज़रूरत। न्यायपालिका राज्य के निर्णयों और नीतियों में खोट देखने के लिए तब ही सक्षम होगी जब ऐसे प्रावधान संविधान के अनुच्छेदों के पूरी तौर पर विपरीत हों अथवा ऐसे निर्णयों और नीतियों में कार्यपालिका का दुराग्रह सतह पर छलक छलक आता हो। लेकिन यदि कार्यपालिका नवोन्मेष के उत्साह में चतुराई से लिखे निर्णयों और नीतियों में कुछ नए प्रयोग करे जिससे संविधान द्वारा बनाए गए निषेधों का भी उल्लंघन होता प्रतीत हो तो भी न्यापालिका को ऐसे पचड़े में पड़ने की ज़रूरत नहीं है। भले ही ऐसे सत्ता-निर्णय जनता के हितों के विपरीत जाते नज़र भी आते हों। संविधान के अनुच्छेद 4 में नीति निदेशक तत्वों की सदाबहार नुमाइश है। इनमें वे क्षितिज और आकाश गूंथे गए हैं जो आम आदमी के हितों के लिए सरकार की प्रतिबद्धताओं में शुमार हैं। एक महत्वपूर्ण उद्घोषणा यह भी रही है कि राज्य श् वर्ष से अधिक तथा 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए अनिवार्य शिक्षा का प्रबंध 10 वर्षों में करे लेकिन 6 वर्ष बीत जाने जाने पर ही अब ये संभावनाएं धीरे धीरे साकार की जा रही हैं। बंधुआ मजदूरों की मुक्ति, यौन शोषण से मुक्ति और बाल श्रमिकों की मुक्ति जैसे महत्वपूर्ण उल्लेख आज भी संविधान और शासन से पनाह मांग रहे हैं। इनका दूर होना तो दूर संख्या बेवजह और बेतरह बढ़ रही है और संविधान है कि चुप है।

विकास की अवधारणा का प्रसव करने की जिम्मेदारी यदि कार्यपालिका ने अपने ऊपर ली है तो उसका न्यूक्लियस नौकरशाही को बना दिया गया है और संविधान की समझ को वही अपने कंधों पर उठाए हुए है। वह गर्वोन्मत्त है कि संविधान के प्रावधानों के अभाव में भी वही कार्यपालिका का रूपांतरित अभिनेता है और भारतीय न्यायपालिका तथा जनता को उसकी समझ से ही विकास की अवधारणाओं को समझने पर मजबूर होना पड़ेगा। न्यायपालिका ने तो यह बहुप्रचारित स्वत: स्फूर्त अवधारण्शा ओढ़ ली है कि वह विकास संबंधी संलिष्ट विचारों को कार्यपालिका के संविधानिक दायरे में समझती है। इस कारण नौकरशाही तक के सामने वह अप्रत्यक्ष रूप से लाचार हो जाती है। तुर्रा यह भी कि जनता को तो इस संबंध में कोई अधिकार ही नहीं दिए गए हैं। संविधान के भाग 3 में जनता को मूल अधिकार दिए गए हैं। वे नकारात्मक भाषा में हैं अर्थात राज्य कतिपय अधिकारों को जनता से यदि छीनने की कोशिश करेगा तो (ही) संविधान उनके आड़े आएगा। संविधान में इस बात के लेकिन अधिकार नहीं हैं कि जनता का विवेक, समझ और निर्णय कार्यपालिका और नौकरशाही के विकास संबंधी निर्णयों और नीतियों का पुनरावलोकन कर सकें। 'मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक' के मुहावरे के अनुरूप जनता ऐसे मुद्दों को लेकर केवल संवैधानिक न्यायालयों तक ही जा सकती है और कहीं नहीं, लेकिन संविधान न्यायालयों ने तो पहले से ही अपनी सरहदें खुद बांध रखी हैं। इस तरह विकास की जो नई वैश्वीकृत अवधारणाएं जनता की छाती पर मूंग दल रही हैं, उनका बाल बांका होने की संवैधानिक संभावनाएं ही एक तरह से खत्म हो चुकी हैं। एक कलेक्टर या इंजीनियर या डेवलपर द्वारा बनाई गई परियोजनाएं उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक शक्तियों से बेखबर या बाखबर होने के बावजूद कभी कभी ही क्षतिग्रस्त हो पाती हैं। उन्हें यह बता दिया जाता है कि भारतीय संविधान जनित न्यायिक संस्थाएं तलवार से सब्जी नहीं काटने जैसे मुहावरों को चरितार्थ करती हुईं आम जनता के अस्तित्व, समझ और भविष्य पर लादी जाती विकास योजनाओं के समर्थन में ही रहेंगी। इसीलिए देश में जगह जगह जन आंदोलनों का जो विस्फोट होता है उसके अनेक प्रत्यक्ष कारणों से अलग हटकर ऐसे अप्रत्यक्ष कारण भी मौजूद हैं जो जनता को न्यायपालिका की लगभग असमर्थता के कारण विकास की नई घातक अवधारणाओं और परियोजनाओं से नहीं बचा पाते हैं। नन्दी ग्राम और सिंगूर इसके सफलतम ताजा जन-समर्थक उदाहरण हैं।

विकास की अवधारणा का मुख्य तर्क यही होता है कि समाज और जनता का लगातार सघन और सर्वसुलभ आर्थिक विकास हो जाए या होता रहे। भारत की पंचवर्षीय योजनाओं में गरीब आदमी के आर्थिक उत्थान का वाचाल बड़बोलापन गूंजता रहा लेकिन अमल में बहुत कुछ नहीं हो पाया। विशषकर नीति निदेशक सिद्धांतों में जो अवधारणाएं उल्लिखित रहीं उन्हें साकार करना मुश्किल ही नज़र आया। इसके अतिरिक्त विशषकर मूलभूत अधिकारों के परिच्छेद 17, 23 और 24 की उद्देशिकाएं जनता की उम्मीदों पर कहां खरी उतरी हैं। ये अधिकार संविधान में निम्नलिखित अनुसार वर्णित हैं-

17 अस्पृश्यता का अंत- ''अस्पृश्यता'' का अंत किया जाता है और उसका किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध किया जाता है। ''अस्पृश्यता'' से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा।

23 मानव के दुर्व्यापार और बलात्श्रम का प्रतिषेध-(1) मानव का दुर्व्यापार और बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य बलात्श्रम प्रतिषिद्ध किया जाता है और इस उपबंध का कोई भी उल्लंघन अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा।

(2) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए अनिवार्य सेवा अधिरोपित करने से निवारित नहीं करेगी। ऐसी सेवा अधिरोपित करने में राज्य केवल धर्म, मूलवंश, जाति या वर्ग या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।

24 क़ारखानों आदि में बालकों के नियोजन का प्रतिषेध-चौदह वर्ष से कम आयु के किसी बालक को किसी कारखाने या खान में काम करने के लिए नियोजित नहीं किया जाएगा या किसी अन्य परिसंकटमय नियोजन में नहीं लगाया जाएगा।

विकास की बुनियादी अवधारणाओं में भारत जैसे कृषि प्रधान देश के संदर्भ में भूमि और कृषि संबंधी सुधारों का मुख्य उद्देश्य रहा है। भूमि सुधार से आशय है कि कृषि उत्पादों और कृषि भूमि की उत्पादकता को विकसित किया जाए और इससे न केवल कृषि के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल की जाए बल्कि विश्व बाज़ार में कृषि उत्पादों को निर्यात करने की स्थिति को प्राप्त किया जाए। इस तरह विकास का कृषि के संदर्भ में यही अर्थ हुआ कि कृषि उत्पादों का सक्षम और आधुनिक प्रबंधन ही विकास की अवधारणा का सही अर्थ है। कृषि भूमियों के सुधार का यही शासकीय अर्थ समझाया गया कि राज्य के प्रोत्साहन से भूमियों का समान वितरण्श, कर्ज़ से उन्मुक्ति, कृषि मज़दूरों के अधिकारों की सुरक्षा और मालगुजारों अथवा कुलाक लॉबी का उन्मूलन करना ही विकास की अवधारणा का मूलमंत्र है। इसके बरक्स विशष आर्थिक क्षेत्र (SEZ) जैसी बदनुमा परिकल्पना किसानों की भूमियों पर लाद दी गई है जिसे विदेशी क्षेत्र कह दिया गया है अर्थात् वहां भारत के कानून लागू नहीं होंगे।

विकास की अवधारणा ने प्रकारांतर से राज्य को राज्य-जनित पूंजीवाद के प्रवर्तक और पोषक की श्रेणी में खड़ा कर दिया है। राज्य लगातार इस बात का दावा करता है कि वह सभी तरह के आर्थिक कानूनों के प्रतिफलन और दोषों की समीक्षा करने का एक मात्र अधिकारी है। इसके विपरीत लेकिन यह बाज़ारवाद है जो राज्य के दावों की खुले आम या तो खिल्ली उड़ाता है या उससे हमसफर होकर ऐसी योजनाएं निर्धारित करता है जिससे राज्य को समीक्षा करने का गुमान तो कायम रहे लेकिन उसके पैरों के नीचे से पूरी दरी ही खींच ली जाए। राज्य ने कंट्रोल राज स्थापित कर रखा था जिसके जरिए व्यापारिक वृत्तियों पर नियंत्रण का शिकंजा कसने के नाम पर सार्वजनिक क्षेत्र और सरकारी अमले की ओहदेदारी को लाभान्वित होने का आरोप लगाया जाता रहा। अचानक राज्य ने सभी तरह के नियंत्रण विकास को तेज गति से महसूस करने के नाम पर हटा लिए। पहले के भ्रष्टाचार, अकुशलता, भाई भतीजावाद और फिजूलखर्ची का स्थान निहित स्वार्थों के निजी क्षेत्र ने हथिया लिया है।

राज्य पहले (और अब भी) संविधान की मंशाओं के कारण कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अपने एकाधिकार को पूरी तौर पर नष्ट नहीं कर पाया है और न ही कर पाने की पूरी संभावना की अनुमति संविधान शायद दे पाएगा। लोहा, कोयला, सैन्य सामग्री, आणविक ऊर्जा आदि के क्षेत्रों में राज्य सुरक्षा और आर्थिक बुनियाद की मजबूती के आधारों पर निजी क्षेत्र के सामने घुटने टेकने की स्थिति में नहीं है। हालांकि इनमें से कई क्षेत्रों में राज्य का साम्राज्य दरक गया है। वैश्वीकरण की तेज़ आंधी को राज्य द्वारा आमंत्रण देने के कारण कई बड़े बड़े पुख्ता सार्वजनिक क्षेत्र या तो उखड़ गए हैं या ऐसे बड़े बड़े पेड़ चरमरा गए हैं। इस्पात, सीमेंट, अल्यूमिनियम जैसे इन्फ्रास्ट्रक्चरर उत्पादों को लेकर राज्य का एकाधिकार खत्म तो हो ही गया है वह धीरे धीरे आम जनता के हितों की सुरक्षा नहीं करता हुआ ऐसी बहुत से वस्तुओं को आवश्यक वस्तुओं की परिभाषा में भी नहीं रख पाया है। वह नर्मदा सागर, टिहरी परियोजना और बाल्को कारखाना के विक्रय को लेकर अजीबोगरीब आचरण तो करता है, सुप्रीम कोर्ट से समर्थन भी पा लेता है।

पिछले वर्षों में लगातार आम जनता की गरीबी की दर तेजी से बढ़ी है। दादा भाई नौरोजी ने अपनी क्लासिक कृति 'पॉवर्टी एण्ड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया' में भारत की जिस गरीबी का चित्रण किया था उसकी पुनरावृत्ति इंदिरा गांधी के दिए गए नारे 'गरीबी हटाओ' में सत्तर के दशक में गूंजी। तथाकथित हरित क्रांति की शुरुआत करने की कोशिश की गई और उसे आर्थिक सिद्धांतों का नया प्रमेय बनाया गया। इस आर्थिक मुहावरे की आड़ में अरबपतियों ने काले धन की कमाई को सफेद बनाने के नए नए रास्ते भी सरकारों की अप्रत्यक्ष मदद से ढूंढ़ लिए और वहीं दूसरी ओर सरकार की नीतियों की विफलता और नौकरशाही के अत्याचार का भांडा फोड़ते हुए नक्सल आंदोलन जैसे हिंसक प्रकल्प भी किसानों के हित में भारतीय राजनीति में उद्भूत हुए। इसी अवधि में राज्य ने अपने आर्थिक तंत्र और जनता को उसका दाय देने के मकसद से बैंकों और बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण किया और उसे विशषकर ग्रामीण आर्थिकी को सुधारने वाला कदम बताया।

आर्थिक विकास में क्षेत्रीय असंतुलन होने के कारण एक तरह का आर्थिक संघवाद संविधान के अंदर उग आया जब राज्यों की आर्थिक स्थिति और प्राकृतिक संसाधनों की स्वायत्तता के समीकरण को ध्यान में रखकर उन्हें दिए जा सकने वाले राजस्व का वितरण भारतीय वित्त आयोग के जरिए निर्धारित किया जाने लगा। इससे राज्यों के विकास की स्थितियां और अधिकार केन्द्र द्वारा नियंत्रित, नियमित और निर्गमित किए जाते रहे। कुछ राज्यों ने (असम तथा गुजरात) ने उनके प्राकृतिक संसाधनों पर मिलने वाली रॉयल्टी आदि की राशि को लेकर न्यायालयों तक में दस्तक दी। केन्द्रीय वित्त आयोग की भूमिका असरकारी होने से उसका एक तरह से राज्य की सरकारों पर अप्रत्यक्ष आर्थिक नियंत्रण भी दिखाई पड़ने लगा।

विकास की अवधारणा को लेकर तरह तरह के राजनीतिक प्रयोग और आंदोलन इसी दरम्यान सतह पर आते गए। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में किया गया संपूर्ण क्रांति का आंदोलन संवैधानिक विकास की राह का एक मील का पत्थर है। यह अलग बात है कि उस आंदोलन ने संविधान की अनदेखी में खामियां ढूंढ़ने के बदले राजनीतिक प्रक्रिया में ही जनविरोधी आचरण की शिकायत और पड़ताल की। इंदिरा गांधी द्वारा देश में आपातकाल लगाए जाने के बाद संविधान में लाया गया बयालीसवां संशोधन एक ओर राज्य अर्थात केन्द्र को लगभग तानाशाह की स्थिति में लाने का उपक्रम करता रहा तो वहीं दूसरी ओर उसमें कई ऐसे संशोधन भी गूंथे गए जिनसे उसका चेहरा जनाभिमुखी दिखाई दे। इसी दरम्यान स्त्रियों के तरह तरह के आंदोलनों को उद्भव, संरक्षण और प्रोत्साहन का अवसर मिला जिससे विकास की अवधारणा का भी सीधा संबंध है।

विकास की अवधारणा को लेकर संविधान में एक महत्वपूर्ण संशोधन तब हुआ जब नीति निदेशक सिद्धांतों के अध्याय में उल्लिखित पंचायती राज और नगर पालिक संस्थाओं को संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के द्वारा संवैधानिक दर्जा दिया गया। अनेक तरह के प्राथमिक और मैदानी विकासों की जिम्मेदारियों से इन संस्थाओं को युक्त घोषित किया गया ताकि उच्च कुलीन राजनीतिक संस्थाओं पर उनकी निर्भरता कम हो। यह एक तरह का महत्वपूर्ण राजनीतिक निर्णय हुआ क्योंकि हिंदुस्तान की आज़ादी के आंदोलन के सबसे बड़े मसीहा महात्मा गांधी ने स्वतंत्र भारत का ढांचा गांवों के चतुर्दिक विकास की बुनियाद पर रखने का आव्हान किया था। यह अलग बात है कि संविधान की इबारतों में महात्मा गांधी के सपनों के चकनाचूर होने की कथा मर्माहत स्वर में गूंजती रहती है। फिर भी किसी न किसी रूप में स्वायत्तशासी राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा देने से एक महत्वपूर्ण राजनीतिक उपक्रम की शुरुआत का श्रेय उन अवधारणाओं को दिया जा सकता है जो गांवों और नगरों के आर्थिक विकास को लोकतंत्र की रीढ़ मानती हैं। यहां ठहरकर यह देख लेना भी मुनासिब होगा कि ग्राम पंचायतों का अर्थतंत्र पूरी तौर पर राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के श्रेष्ठि वर्ग पर आवंटन, व्यय और पश्चातवर्ती जांच को लेकर लगभग एकाधिकार की मुद्रा में निहित होता है। संविधान की इस आर्थिक व्याख्या के संदर्भ में आम आदमी लगभग पराजय की भूमिका में है। उसे लगता है कि संविधान में ऐसा कुछ अंतर्निहित है जो उसकी समझ के लिए नहीं रचा गया है। वह संविधान की पोथी को हाथ लगाने से भी डरता है क्योंकि उसमें उसके लिए ऐसा कोई पाठ नज़र नहीं आता जिसे वह आत्मसात कर सके।

समकालीन भारत की आर्थिक मुश्किलों और चुनौतियों को वैश्वीकरण के लिहाफ ने ओढ़ रखा है। संवैधानिक न्याय का इस आर्थिक घटना से सीधा संबंध है। संपत्ति संबंधी अवधारणाएं वैश्वीकरण के कारण पूरी तौर पर गऔमगऔ हो गई हैं। संविधान की आयतों की अनदेखी करता हुआ वैश्वीकरण का झंझावात उत्पादन के साधनों पर एकाधिकार के नियंत्रण का समर्थन करता है और निजी उद्योगों और पूंजी पर सभी तरह के शासनियंत्रण की हेठी करता है। वैश्वीकरण को आर्थिक संसाधनों के समान वितरण बल्कि गरीबोन्मुखी होने से सरोकार तो है ही नहीं बल्कि एक तरह का परहेज है। यह अचरज है कि तथाकथित वैश्वीकरण जिन पश्चिमी मुल्कों से आया है वहां प्रजातांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था न केवल मजबूत है बल्कि बहुत पुरानी भी है। पूंजीवाद और प्रजातंत्र का घालमेल पश्चिमी देशों में लगातार रहा है-इस बात से भारतीय संविधान सभा के सदस्य अच्छी तरह परिचित थे। इसीलिए उन्होंने भारत के संविधान में इतनी सावधानियां बरतीं कि संविधान कथित बुर्जुआ लोगों द्वारा निर्मित कहा जाने पर भी पूंजीवाद का पैरोकार नहीं दिखाई देता। संविधान के लागू होने के बाद जब धनाढय वर्ग ने संविधान में वर्णित संपत्ति संबंधी अवधारणाओं को चुनौती देना शुरू किया तो उच्चतम न्यायालय में उस अग्रसोची क्रांतिधर्मिता का लोप दिखाई पड़ा जो भारत जैसे गरीब लोकतांत्रिक देश की भविष्य की पीढ़ियों के लिए ज़रूरी और उपादेय था। इसलिए भारतीय संसद को जनसमर्थन के दबाव के कारण संविधान में लगातार संशोधन करने पड़े जिससे संपत्ति संबंधी मूल अवधारणाओं पर पड़े न्यायिक मकड़जाले को साफ करना ज़रूरी जनतांत्रिक प्रक्रिया समझा गया।

अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय और मौद्रिक दबावों से विकासशील देश सबसे अधिक प्रभावित रहे हैं। यह विपर्यय है कि अमूमन वे देश जो अपनी आज़ादी के वक्त विकासशील कहे जाते रहे हैं, भारत की तरह आधी सदी से ज्यादा बीत जाने पर भी विकासशील ही कहे जा रहे हैं। संविधान पर वैश्वीकरण का असर यह हुआ है कि संविधान को दरकिनार कर भारतीय प्रशासन विकास की अवधारणा को फलीभूत करना संविधान का इस तरह मूल मकसद समझता है जिससे भले ही भारत की जनता को उसके अधिकारों से च्युत किया जा सके लेकिन यह दिखाई पड़े और समझाया जा सके कि यह पूरा विकास तो जनता के लिए ही किया जा रहा है। यह एक तरह का श्लेष है जिससे भारतीय जनता अपने राजनीतिक अधिकारों की लड़ाई को फिलहाल स्थगित समझे क्योंकि देश में इस समय आर्थिक ढांचागत विकास की प्रक्रिया जारी है। इस पूरे प्रकल्प को सहयोग देकर आगे बढ़ाने के लिए स्वैच्छिक संगठनों की एक नई संस्था या परिकल्पना का विधिवत आविष्कार किया गया है। स्वैच्छिक संगठन इस तरह ज़रूरी बताए गए हैं कि सरकारों के पास वित्तीय साधन उपलब्ध होने के बावजूद कुशल मानव टीम नहीं है जो योजनाओं को अमल में ला सके। इसलिए सरकार की सहवर्ती संस्था के रूप में स्वैच्छिक संगठनों का इतना अधिक जाल बुना गया कि उन्हें समानांतर सरकार कहने में गुरेज नहीं होना चाहिए। इनमें से अधिकांश स्वैच्छिक संगठन पंजीकृत संस्थाएं हैं। उनमें मैनेजमेंट की कला का हुनर है। अधिकतर स्वैच्छिक संगठन उद्योगपतियों और नौकरशाहों के सीधे नियंत्रण में हैं। वे घाटे में चलने वाली संस्थाएं नहीं हैं बल्कि एक तरह का लाभ कमाने वाले उद्योग हैं। वे निश्चित रूप से कुछ न कुछ विकास तो करते हैं लेकिन जितने अधिक सरंजाम के साथ उन्हें सक्रिय किया गया है उसके अनुपात में उन्हें समाज सेवक जैसी संज्ञा से विभूषित भी नहीं किया जा सकता। इनमें से अधिकांश स्वैच्छिक संगठन सीधे सीधे सरकारी और अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक अनुदान पर निर्भर होते हैं। उनमें वह देशज भावना नहीं होती जिसके कारण वे विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में स्वावलंबन का पाठ पढ़ाएं। आर्थिक विकास की अवधारणाओं ने ऐसा एक नया माहौल देश में बना दिया है जिससे संविधान की मंशाएं एक तरह से विखंडित होती जा रही हैं। फिर भी भारतीय संविधान एक अनवरत आव्हान है जिसे बाज़ारवाद की वैश्विक आंधी से निपटने का जोखिम तो उठाना पड़ेगा।

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कनक तिवारी